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बाह्यकारण-मीमांसा उपादान निज गुण जहाँ तह निमित्त पर होय । भेदज्ञान परवान विधि विरला बुझे कोय ॥
_[भैया भगवतीवासजी ] १ उपोद्धात
पिछले प्रकरणमें युक्ति और आगमसे चेतन और अचेतन प्रत्येक द्रव्यका पर्यायरूपसे उत्पन्न होना और व्ययको प्राप्त होना तथा परम पारिणामिक स्वभावमय अन्वयरूपसे स्वयं उत्पाद और व्ययकी अपेक्षा किये विना ध्रुव (एक रूप) रहना उसका स्वभाव है, वह अन्य किसीका कार्य नहीं है। आगममें छह द्रव्योंसे व्याप्त इस लोकको अकृत्रिम और अनादिनिधन कहनेका तथा उनसे उत्पाद-व्ययरूप कार्यो (पर्यायों)के कर्तारूपसे ईश्वरके निषेध करनेका तात्पर्य भी यही है । ___इतना विशेष है कि एक वस्तु अन्य वस्तुके कार्यका परमार्थसे कारण कमी नहीं है यह उपलक्षण वचन है । इससे यह सिद्ध हो जाता है कि एक वस्तु दूसरी वस्तुके प्रति परमार्थसे कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, अधिकरण कुछ भी नहीं है दूसरी विशेषता यह है कि जगतके कर्तारूपसे ईश्वरकी सत्ता तो है ही नहीं, जीवादी वस्तुओंकी सता अवश्य है । इसलिये उनपर दूसरोंके कार्योके प्रति असद्भूत व्यवहार लागू हो जाता है ।
इसलिये यह प्रश्न होता है कि क्या यह एकान्त है कि जिस प्रकार, प्रत्येक द्रव्य अपने अन्वयरूप स्वभावके कारण ध्रुव है, वह अन्य किसीका कार्य नहीं है इसी प्रकार उत्पाद-व्ययरूपसे परिणमन करना उसका अपना स्वभाव होनेसे मात्र वह अपने इस परिणमन स्वभावके कारण ही उत्पाद-व्ययरूपसे परिणमन करता है या उसे अपने इस परिणमन रूप कार्यमें अन्य किसीकी सहायता अपेक्षित रहती है । प्रश्न मार्मिक है। आगममें इसका दो दृष्टियोंसे विचार किया गया है-द्रव्यदृष्टिसे
और पर्यायदृष्टिसे । द्रव्यदृष्टिमें नैगमनय मुख्य है, क्योंकि कार्य-कारण भावका महापोह मुख्यतया इसो नयका विषय है । तथा पर्यायार्थिक नयमें ऋजुसूत्रनय मुख्य है, क्योंकि यह नय दोमें कारण-कार्यरूप या अन्य किसी प्रकारका सम्बन्ध स्वीकार नहीं करता । इस नयकी अपेक्षा उत्पाद और व्यय दोनों ही निर्हेतुक होते हैं। जयधवला पुस्तक १ पृ. २०६-२०७ में व्यय निर्हेतुक केसे है इसका निर्देश करते हुए लिखा है