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वस्तुस्वभाव-मीमांसा
३५ षट् प्रन्याणि इति लोकः' जिसमें छह द्रव्य अवलोकित किये जाते हैं उसका नाम लोक है ऐसी उसकी व्युत्पत्ति है। यह लोक अकृत्रिम, अनादि-अनिधन और स्वभावनिष्पन्न है। ___ यहाँपर यह जितना द्रव्य विस्तार कहा गया है वह सब अस्तित्व स्वरूप होनेसे सत्ता शब्द द्वारा अभिहित किया जाता है और इसीलिये सत्ताके स्वरूपका निर्देश करते हुए पञ्चास्तिकायमें आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं
सत्ता सब्वपयत्था सविस्सरुवा अणतपज्जाया।
भंगुप्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि एक्का ॥७॥ सत्ता अस्तित्वका दूसरा नाम है । यह न तो सर्वथा नित्य है और न ही सर्वथा क्षणिक है, क्योंकि यदि वस्तुमात्रको सर्वथा नित्य स्वीकार कर लिया जाय तो उसमें क्रमसे होनेवाली पर्यायोंका अभाव होनेसे जो प्रत्येक वस्तुमें परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है वह नहीं बन सकता । और यदि उसे सर्वथा क्षणिक स्वीकार कर लिया जाय तो उसमें यह वही है, ऐसे प्रत्यभिज्ञानका अभाव होनेसे एक सन्तानपनेका अभाव प्राप्त होता है।
प्रत्येक वस्तुको अनेकान्तस्वरूप सिद्ध करते हुए वस्तुको सर्वथा नित्यस्वरूप या सर्वथा क्षणिकस्वरूप स्वीकार करनेपर जो दोष आता है उसे स्पष्ट करते हुए स्वामि-कार्तिकेयानुप्रेक्षामें स्वामी कार्तिकेय लिखते हैं
परिणामेण विहीण णिच्चं दव्व विणस्सदे णेय ।
णो उप्पज्जेदि सया एवं कज्जं कह कुणदि ॥२२७॥ परिणामसे रहित नित्य द्रव्य न तो कभी नष्ट हो सकता है और न कभी उत्पन्न हो सकता है, ऐसी अवस्थामें वह कार्य कैसे कर सकता है ।।२२७॥
पज्जयमितं तच्च विणस्सरं खणे खणे वि अण्णणं ।
अण्णइदम्वविहीणं ण य कजं कि पि साहेदि ।।१२८।। क्षण-क्षणमें अन्य-अन्य होनेवाला विनश्वर तस्व अन्वयी द्रव्यके बिना कुछ भी कार्य नहीं कर सकता ॥२२८॥
इतने विवेचनसे यह स्पष्ट है कि प्रत्येक वस्तु न तो सर्वथा नित्य है और न ही सर्वथा क्षणिक है, किन्तु नित्य-अनित्यस्वरूप है। यही