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विषय प्रवेश
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नहीं । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए नष्टसहस्रीमें ये कारिकाऐं आई हैं
तयोरव्यतिरेकतः ।
द्रव्य-पर्याययोरक्य परिणामविशेषाच्च शक्ति मच्छक्तिभेदतः ॥७१॥ संज्ञा - संस्याविशेषाच्च स्वलक्षणविशेषतः । प्रयोजनाभेदाच्च तन्नानात्वं न सर्वथा ॥७२॥
द्रव्य और पर्यायोंमें अव्यतिरेक होनेसे उनमें ऐक्य अर्थात् अभेद है, उनमें जो भेद लक्षित होता है वह परिणामविशेष, शक्तिमान - शक्तिभेद, संज्ञाविशेष, संख्याविशेष, स्वलक्षणविशेष और प्रयोजनविशेष आदिकी अपेक्षा ही लक्षित होता है । द्रव्य और पर्यायोंमें यह नानात्व सर्वथा नहीं है ।
यह भेदरूप उपचारकी संक्षेपमें मीमांसा है। यहाँ ऐसा समझना चाहिए कि जितने भी अध्यवसान भाव हैं वे सब छोड़ने योग्य हैं, इस कथनका आशय यह है कि सद्भूत और असद्भृत जितना भी व्यवहार है वह सब छोड़ने योग्य है, अर्थात् मोक्षमार्ग में आरूत होनेके लिए उनके प्रवृत्त करना उचित नहीं है । आशय यह है कि यह जीव अनादि कालसे असद्भूत व्यवहार और सद्भूत व्यवहार ( भेद-उपचार ) को मुख्य मान कर पराश्रित हनेके साथ पर्यायमूढ़ बना चला आ रहा है, जिससे वह संसारका पात्र बना हुआ है । किन्तु यह संसार दुःखदायी और राग, द्वेष, मोहसे व्याप्त है ऐसा समझकर उससे निवृत्त होनेके लिए सद्भूत और असद्भूत दोनों प्रकारके उपचारको गौण करनेके साथ अभेदस्वरूप अखण्ड अपने आत्मापर दृष्टि स्थिर कर तन्मय हो स्वसमयरूपसे प्रवृत्त होना आवश्यक है, क्योंकि वह वस्तुका स्वभाव होनेसे धर्म है । शुद्ध चैतन्यका प्रकाश इसीका दूसरा नाम है । तभी वह राग-द्वेष-अज्ञानमय संसार परिपाटीसे मुक्त हो परमानन्द स्वरूप अपने आत्माका भोक्ता हो सकेगा । मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होनेके लिए वर्तमानमें इस जीवका यह मुख्य प्रयोजन है । यही कारण है कि इस प्रयोजनको ध्यानमें रखकर परमागम में मोक्षेच्छुक जीवको सभी प्रकारके व्यवहारसे परावृत्त करानेका उपदेश दिया जाता है ।
१. समय० गाया १५० कलश १०९, ११० ।
२. प्रवच० गा० ८ ज्ञा० त० प्र० टी० 1 ३ समय० कलश० १७३ ।