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आत्मनिवेदन यह जैन तत्त्वमीमांसाका दूसरा संस्करण है। इसे द्वितीय भाग भी कह सकते है । इसमे प्रथम भागको अपेक्षा विषयकी विशदताको ध्यान में रख कर पर्याप्त परिवर्णन किया गया है। साथ ही इसमें प्रथम सस्करणका बहुत कुछ अंश भी गर्भित कर लिया गया है। इसलिये इसे द्वितीय सस्करण भी कहा जा सकता है और विषयके विस्तृप्त विवेचन की दृष्टिसे दूसरा भाग भी कहा जा सकता है।
इसमें अधिकतर अध्यायोंके नाम आदि वे ही है। मात्र तोसरे और चौथे अध्यायके नामोमें परिवर्तन किया गया है। पिछले सस्करणमें तीसरे अध्यायका नाम निमित्तकी स्वीकृति' था, किन्तु इस संस्करणमे उसका नाम 'वाह्य साधन मीमांसा' रखा गया है। जैन दर्शनके अनुसार कार्यकालमें अविनाभाव सम्बन्धवश कार्यके प्रति बाह्य साधनको स्वीकृति अवश्य है, पर बाह्य साधन परका कर्ता होकर परके कार्यको करता है इसका निषेध है। जहाँ भी वाह्य साधनको परकार्यका कर्ता या प्रेरक कहा भी गया है वहाँ अनादि लौकिक रूढिका ध्यानमें रख कर ही कहा गया है। ___ ग्यारहवे गुणस्थानमे कषायका अभाव होनेसे जीवका नियमसे अवस्थित परिणाम रहता है इसे आगम स्वीकार करता है, फिर भी जिन कर्मोका क्षयोपशम होता है ऐसे मतिज्ञानावरण आदि चार, चक्षुदर्शनावरण आदि तीन और पाँच अन्तरायकी जो लब्धिकर्माश सज्ञा है उनमेसे पाँच अन्तरायका तो यह जीव वहाँ अवस्थित वेदक रहता है और चार ज्ञानावरण और तीन दर्शनावरणका अनवस्थित बेदक होता है। इसका अर्थ है कि पाँच अन्तगय कर्मोके क्षयोपशममे तो न्यूनाधिकता नही होती, जब कि शेष उक्त सात कर्मोंके क्षयोपशममें न्यनाधिकता होती रहती है। वहाँ परिणाम तो अवस्थित है। फिर भी इन कर्मोके क्षयोपशममें यह विशेषता होती रहती है । सो क्यों ? इससे मालूम पड़ता है कि प्रत्येक द्रव्य कर्ता हो कर स्वयं अपना कार्य करता है। अन्य द्रव्य उससे भिन्न द्रव्यके कार्यका कर्ता नही होता। यही कार्यके प्रति बाह्य निमित्तकी स्वीकृतिमें जैन दर्शनका हार्द है। जैन दर्शनमे परके प्रति उससे भिन्न पदार्थमे जो निमित्तता स्वीकार की गई है वह