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जैन तत्त्वमीमांसा विधि है। तात्पर्य यह है कि जहां पर उपादान कार्यरूप परिणत होता.... है वहाँ पर परपदार्थ, स्वयमेव निमित्त होता है। उसे जटाना नहीं पड़ता।
कार्यका विवेक उपादान बल जहं वहा नहिं निमित्त को दाव ।
एक चक्र मों रथ चले रविको यह स्वभाव ॥५॥ । जहाँ तहां उपादानका बल है। निमित्तका दाव नहीं लगता, क्योंकि । सूर्य का यही स्वभाव है कि उसका रथ एक चक्रसे चलता है ॥५॥
[ यहाँ उक्त कथन द्वारा यह दिखलाया गया है कि उपादान स्वय' , कार्यरूप होता है। कार्यरूप होनेमें निमित्तको कोई स्थान नही। वह काय के होनेमें निमित्त है इतने मात्रसे यह नहीं कहा जा सकता कि उससे कार्य होता है. क्योंकि ऐसा. मानने पर वस्तु व्यवस्थाका कोई. नियामक नहीं रह जाता।]
सधै वस्तु असहाय जहां तहा निमित्त है कौन ।
ज्यो जहाज परवाह में तिर सहज विन पौन ॥६॥ जिस प्रकार पानीके प्रवाहमें जहाज बिना पवनके सहज चलता है उसी प्रकार जहाँ प्रत्येक कार्यको दूसरेकी सहायताके बिना सिद्धि होती है वहाँ बाह्य निमित्त कौन होता है ॥६॥
[यहाँपर वस्तुका असहाय स्वभाव बतलाया गया है। उत्पाद और व्यय यह पानीका प्रवाह है तथा वस्तु यह जहाज है । जिस प्रकार पानी..के प्रवाहमें जहाज स्वभावसे गमन करता है उसी प्रकार वस्तु अपनी
योग्यतासे सहशपने ध्रुव रहकर उत्पाद-व्ययरूप प्रवाहमें बहती है। अन्यको सहायता मिल तो यह परिणमन हो और अन्यकी सहायता न मिले तो परिणमन न हो ऐसा नहीं है। इसलिए वस्तुस्वभावकी दृष्टिसे प्रत्येक परिणमन स्वभावसे ही होता है । ऐसा समझना चाहिए । ]
उपादान विधि निरवचन है निमित्त उपदेश ।
वस जु जैसे देश में धरे सु तसे भेष ॥७॥ उपादान निरुक्तिसिद्ध विधि है और बाह्य निमित्त कथन मात्र है। जो जैसे देशमें (जिस अवस्थामे) निवास करता है ( रहता है ) वह उसी भेषको (उसी अवस्थाको) स्वयं धारण करता है ॥७॥
Ramayan