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जैनसत्त्वमीमांसा यहाँ पर कोई शंका करता है कि यदि भिन्न कर्तृ-कर्म आदिरूप व्यवहार उपचरित ही है तो शास्त्रोंमें उसका निर्देश क्यो किया गया है ? समाधान यह है कि उपचरित कथन द्वारा अनपचरित अर्थको प्रसिद्धि होती. है इस प्रयोजनको ध्यानमें रखकर शास्त्रोंमें इसका कथन किया गया है । नयचक्रमें कहा भी है
____ तह उपयारो जाणह साहणहेऊ अणुवयारे ॥२८८॥ उसी प्रकार अनुपचारकी सिद्धिका हेतु उपचारको जानो ॥२८॥ इसी तथ्यकी पुष्टि अनगारधर्मामृतके इस वचनसे भी होती है
काद्या वस्तुनो भिन्ना येन निश्चयसिद्धये ।
साध्यन्ते व्यवहारोऽसौ निश्चयस्तदभेददृक् ॥१-१०२॥ जिस द्वारा निश्चयकी सिद्धिके लिए वस्तुसे भिन्न कर्ता आदि साधे जाते है वह व्यवहार कहलाता है तथा जिस द्वारा वस्तुसे अभिन्न कर्ता आदिकी प्रतिपत्ति होती है वह निश्चय है ॥१-१०२।।
यहाँ पर ऐसा समझना चाहिए कि जो वचन स्वयं असत्यार्थ होकर भी इष्टार्थकी सिद्धि करता है वह आगममे और लोकव्यवहारमे असत्य नहीं माना जाता। उदाहरणस्वरूप 'चन्द्रमुखी' शब्दको लीजिए। यह शब्द ऐसी नारीके लिए प्रयुक्त होता है जिसका मुख मनोज्ञ और आभायुक्त होता है। यह इष्टार्थ है। 'चन्द्रमुखी' शब्दसे इस अर्थका ज्ञान हो जाता है, इसलिए लोक व्यवहारमें ऐसा वचन प्रयोग होता है तथा इसी अभिप्रायसे साहित्यमें भी इसे स्थान दिया गया है। परन्तु इसके स्थानमें यदि कोई इस शब्दके अभिधेयार्थको ग्रहण कर यह मानने लगे कि अमुक स्त्रीका मुख चन्द्रमा ही है तो वह असत्य ही माना जायगा, क्योंकि किसी भी स्त्रीका मुख न तो कभी चन्द्रमा हुआ है और न हो सकता है । ___ यह एक उदाहरण है। प्रकृतमें इस विषयको और भी स्पष्टरूपसे समझनेके लिए हम भारतीय साहित्यमें विशेषत:अलंकार शास्त्रमें लोकानुरोधवश विविध वचनप्रयोगोंको ध्यानमें रखकर निर्दिष्ट की गई तीन वृत्तियोंकी ओर विचारकोंका ध्यान आकर्षित करना चाहेगे। वे तीन वृत्तियाँ हैं-अमिधा, लक्षणा और व्यञ्जना। माना कि शास्त्रोंमें ऐसे वचनप्रयोग उपलब्ध होते है जहाँ मात्र अभिधेयार्थकी मुख्यता होती है। जैसे 'जो चेतनालक्षण भावप्राणसे जीता है वह जीव' इस वचन द्वारा जो कहा गया, जीव नामक पदार्थ ठीक वैसा ही है, अन्यथा नहीं है, इसलिए यह वचन मात्र अभिधेयार्थका कथन करनेवाला होनेसे यथार्थ है।