________________
तत्त्वमीमांसा
देखना यह है कि उन महाशयोंका यह कहना कहाँ तक तर्कसंगत है, क्योंकि उनके इस कथनको स्वीकार करने पर पूरी की पूरी तत्वव्यवस्था गड़बड़ा जाती है, क्योंकि उनके इस कथनको स्वीकार करने पर एक तो वस्तुगत योग्यताका अभाव मानना पड़ता है जो युक्तियुक्त नही है । जो भी कार्य होता है वह वस्तुगत योग्यताके अनुसार ही होता है इसे समन्तभद्र आदि सभी आचार्यों ने दृढ़तासे स्वीकार किया है । यदि आचार्य समन्तभद्र रचित आप्तमीमांसाकी 'बुद्धिपूर्वापेक्षायाम्' इस कारिका पर ही ध्यान दिया जाय तो मालूम पड़ेगा कि उन्होंने जोवके प्रत्येक कार्यके प्रति पुरुषार्थं और देव ( योग्यता' ) को गौण मुख्यभावसे स्वीकार कर प्रकारान्तरसे पुरुषार्थके साथ सम्यक् नियतिका ही समर्थन किया है।
४०८
दूसरे इन महाशयोंके उक्त कथनको स्वीकार करनेपर कार्यों के प्रति पुरुषार्थ के लिए भी कोई स्थान नहीं रह जाता, क्योंकि जब उनके मतानुसार अनियमसे सामग्रीकी प्राप्ति स्वीकार कर उसके अधीन कार्य की उत्पत्ति मानी जाती है तब पुरुषार्थको माननेकी आवश्यकता ही नहीं रह जाती । परन्तु उनका यह मानना भी युक्ति-युक्त नहीं है, क्योंकि जीवोंके योगसे जो भी कार्य होता है उसमें कहीं मुख्यरूपसे और कहीं गौणरूपसे पुरुषार्थ है ही इसका भी समन्तभद्र आदि सभी आचार्यों ने दृढ़ता से समर्थन किया है यह 'बुद्धिपूर्वापेक्षायाम्' इसी कारिकासे स्पष्ट हो जाता है ।
इसलिए यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक कार्य होता तो वस्तुगत योग्यता अनुसार ही है । और जिस समय योग्यतानुसार जो कार्य होता है उस समय अपनी-अपनी सुनिश्चित योग्यतानुसार अन्य सामग्रीका योग भी मिलता है । कथनमे गौण - मुख्यभाव हो सकता है, पर वस्तुस्थिति यही है । इसलिये भविष्यकालीन पर्यायोंका होना अपने-अपने कालमें सुनिश्चित होने से केवलज्ञान उनको सुनिश्चित रूपमें ही जानता है यह सिद्ध हो जाता है ।
माना कि केवलज्ञान मात्र जानता है और सकल पदार्थ उसके शेय हैं, इसलिये केवलज्ञानसे जैसा जानते हैं, मात्र इसी कारण पदार्थो का बेसा परिणमन नहीं होता, क्योंकि केवलज्ञान ज्ञापक है, कारक नहीं । पदार्थों का परिणमन अपनी अपनी कार्य-कारणपरम्पराके अनुसार ही होता
१. यहाँ योग्यता पदसे द्रव्य-पर्याय उभयरूप योग्यता ली गई है ।