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जैनतत्त्वमीमांसा प्रत्येक द्रव्य या गुणकी प्रत्येक समयमें जो पर्याय होती है वह यद्यपि । अखण्ड और एक ही होती है। पर आगे-पीछे होनेवाली पर्यायोंके तारतम्यको ध्यानमें रख कर बुद्धिसे विचार करने पर वह पूर्व पर्यायसे कितने अंशमें बड़ी या छोटी है यह अविभाग प्रतिच्छेदोंके द्वारा जाना जाता है। इस प्रकार प्रत्येक पर्यायमें तारतम्यको लक्षित कर जो जघन्य अशकी कल्पना की जाती है उसका नाम अविभागप्रतिच्छेद है। इस दृष्टिसे समस्त ज्ञेयको सामने रख कर केवलज्ञानका विचार करते हैं तो विदित होता है कि जितने भी शय हैं उनसे केवलज्ञान अपने अविभाग प्रतिच्छेदों (जाननमे समर्थ पर्यायशक्त्य ) की अपेक्षा अनन्तगुणा है। त्रिलोकसारके द्विरुपवर्गधारा प्रकरणमें इसी तथ्यको इस प्रकार स्पष्ट करके बतलाया गया है
तिविह जहण्णाणत वग्गसलादलछिदी सगादिपद । जीवो पोग्गल काला सेढी आगास तप्पदरं ॥ ६९ ।। धम्माधम्मागुरुलघु इगजीवस्सागुरुलधुस्स होति तदो। सुहमाणि अपुण्णणाणे अवरे अविभागपडिच्छेदा ।। ७० ॥ अवरा खाइयलद्धी वग्गसलागा तदो सगछिदी। अइसगछप्पणतुरिय तदियं विदियादि मूलं च ।। ७१ ॥ सइमादिमुलवग्गे केवलमत पमाणजेठमिण ।
वरखइयलद्धिणामं सावग्गसला हवे ठाणं ॥ ७२ ।। द्विरूप वर्गधारामें उत्तरोत्तर वर्गरूप स्थानोंके क्रममें तीन प्रकारके जघन्य अनन्तरूप वर्गस्थान उत्पन्न होते है। उसके बाद जीवराशि सम्बन्धी वर्गक्षलाका अधच्छेद और प्रथम वर्गमूल उत्पन्न होता है। उसके बाद प्रथम वर्गमूलको प्रथम वर्गमूलसे गुणा करने पर जीवराशि उत्पन्न होती है। पश्चात् जीवराशिसे अनन्त वर्गस्थान आगे जाने पर पुद्गलराशि उत्पन्न होती है। इसी प्रकार उत्तरोत्तर अनन्त अनन्त वर्गस्थान आने जाने पर क्रमसे कालके समय, श्रेणिरूप आकाश उत्पन्न होता है। पश्चात् जगच्छ्रेणिको जगच्छणिसे गुणा करने पर जगतप्रतर उत्पन्न होता है। उसके बाद अनन्त वर्गस्थान आगे जाने पर धर्म-अधर्म द्रव्यके अग्ररुलघु अविभागप्रतिच्छेद उत्पन्न होते हैं। उनसे अनन्त वर्गस्थान आगे जाने पर एक जीवके अगुरुलघु अविभागप्रतिच्छेद उत्पन्न होते है। उससे अनन्त वर्गस्थान आगे जाने पर सक्ष्म निगोद लव्ध्यपर्याप्तक जीवके जघन्य पर्यायज्ञानके अविभागप्रतिच्छेद उत्पन्न होते हैं।