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अनेकान्त-स्थादमीमांसा,
३६५ ।। पदार्थका कथन शब्दोंसे दो प्रकारसे किया जाता है। एक क्रमिकरूपसे और दूसरा बीयपवरूपसे 1 कथन करनेका तीसरा कोई प्रकार नहीं है। जब अस्तित्व आदि अनेक धर्म कालादिकी अपेक्षा भिन्न-मित्र अर्थरूप विवक्षित होते हैं उस समय एक शब्दमें अनेक धर्मों के प्रतिपादनकी शक्ति न होनेसे क्रमसे प्रतिपादन होता है। इसे विकलादेश कहते हैं। परन्तु जब उन्हीं अस्तित्वादि धर्मोकी कालादिकी दृष्टिसे बमेद विवक्षा होती है तब एक ही शब्दके द्वारा एक धर्ममुखेन तादात्म्यरूपसे एकत्वको प्राप्त सभी धर्मों का अखण्डभावसे युगपत् कथन हो जाता है। यह सकलादेश कहलाता है। विकलादेश नयरूप है और सकलादेश प्रमाणरूप । इसलिए वस्तुके स्वरूपके स्पर्शके लिए सकलादेश और विकलादेश दोनों ही कार्यकारी हैं ऐसा यहाँ समझना चाहिए। एक ही वचनप्रयोग जिसे हम सकलादेश कहते हैं वह विकलादेशरूप भी होता है और सकलादेश रूप भी । यह वक्ताके अभिप्रायपर निर्भर है कि वह विवक्षित वचन प्रयोग किस दृष्टिसे कर रहा है। यथावसर उसे समझनेकी चेष्टा तो की न जाय और उसपर एकान्त कथनका आरोप किया जाय यह उचित नहीं है। अतएव वक्ता कहाँ किस अभिप्रायसे बचनप्रयोग कर रहा है इसे समझकर ही पदार्थका निर्णय करना चाहिए। ____ 'कथंचित् जीव है ही' यह वचनप्रयोग सकलादेश भी है और विकलादेशरूप भी। यदि इस वाक्यमें स्थित 'है' पद अन्य अशेष धर्मों को अभेदवृत्तिसे स्वीकार करता है तो यही वचन सकलादेशरूप हो जाता है और इस वाक्यमें स्थित है' पद मुख्यरूपसे अपना ही प्रतिपादन करता है तथा शेष धर्मो को 'कथंचित्' पद द्वारा गौणभावसे ग्रहण किया जाता है तो यही वचन विकलादेशरूप हो जाता है। कोन वचन सकलादेशरूप है और कौन वचन विकलादेशरूप यह वचन प्रयोग पर निर्भर न होकर वक्ताके अभिप्राय पर निर्भर करता है। अतएव 'जीव ज्ञायकभावरूप ही हैं' ऐसा कहने पर यदि इस वचनमें अमेदवृत्तिको मुख्यता है तो यही बघन सकलादेशरूप हो जाता है और इस वचनमें कथंचित् पद द्वारा गौणभावसे अन्य अशेष धर्मों को स्वीकार किया जाता है तो यही वचन विकलादेशरूप भी हो जाता है ऐसा यहाँ पर समझना चाहिए।
यद्यपि यह बास तो है कि सम्यग्दृष्टिके ज्ञानमें जहाँ हायकस्वभाव मात्माकी स्वीकृति है वहां उसमें ससार अवस्था और मुक्ति अबस्थाकी
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