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... . . " अनेकान्त-स्थाहावमीमांसा ..... ३६१ . समाधान-माना कि स्यात्' परसे बनेकालका बोतना हो जाता है फिर भी विशेषार्थी विशेष शब्दोंका प्रयोग करते हैं। जैसे जीव कहनेसे मनुष्यादि सभीका ग्रहण हो जाता है, फिर भी विवक्षित पर्यायविशिष्ट जीबको जाननेवाला उस-उस शब्दका प्रयोग करता है। इसलिये पूर्वोक कोई दोष नहीं है। ... एक बात और है। वह यह कि यद्यपि 'स्यात्' पद अनेकान्तका द्योतक होता है और जो घोतक होता है वह किसी वाचक शब्दके द्वारा कहे गये अर्थको ही अनेकान्तरूप द्योतन करता है, अतः वाचक द्वारा प्रकाश्य धर्मकी सूचनाके लिये इतर शब्दोंका प्रयोग किया जाता है। बात यह है कि जब हम किसी विवक्षित धर्मके द्वारा बस्तुका कथन करते हैं तब वस्तुमें रहनेवाले अन्य सब धर्म अविवक्षित रहते हैं, इसलिये उनके सूचित करनेके लिये 'स्यात्' पदका प्रयोग किया जाता है। यदि 'स्यात्' पदका प्रयोग न किया जाय तो सभी प्रयोग अनुकतुल्य हो जाते हैं। 'स्यात्' पद अनेकान्तका द्योतक है इस अर्थको स्पष्ट करते हए आप्तमीमांसामें आचार्य समन्तभद्र कहते है
वाक्येष्व नेकान्तद्योती गम्यं प्रति विशेषणम् ।
स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तत्र केबलिना मपि ।।१०३।। हे भगवन् ! आपके शासनमें 'स्यादस्त्येव जीव.' या 'स्यान्नास्त्येब जीव.' इत्यादि वाक्यो में अर्थके सम्बन्धवश 'स्यात्' पद अनेकान्तका द्योतक होता है और गम्य अर्थका विशेषण होता है। प्रकृतमें 'स्यात' पद निपात है । यह केवलियों और श्रुतकेवलियों दोनोंको अभिमत है। ___ यहाँ आचार्य समन्तभद्रने यह स्पष्ट किया है कि सप्तभङ्गीके प्रत्येक भङ्गको 'स्यात्' पदसे युक्त करनेके दो प्रयोजन हैं। प्रथम प्रयोजनके अनुसार तो प्रत्येक वाक्यमें 'स्यात्' पद अनेकान्तका द्योतक होता है, क्योंकि निपात द्योतक होते हैं ऐसा वचन है। दूसरे प्रयोजनके अनुसार जिस वाक्यमें जो गम्य अर्थ है उसका विशेषण होनेसे वह अपेक्षा विशेषको सूचित करता है। इससे हम जानते हैं कि प्रथम भङ्गमें 'जीव है हो' यह जो कहा गया है वह अपेक्षा विशेषसे ही कहा गया है और दूसरे भङ्गमें 'जोव नहीं ही है' यह जो कहा गया है वह भी अपेक्षा विशेषसे ही कहा गया है। इस प्रकार प्रत्येक भङ्गमें 'स्यात्' पदका प्रयोग होनेसे एक तो अनुक्त धमाका स्वीकार हो जाता है दूसरे विवक्षित भंग किस अपेक्षासे कहा गया है इसका सूचन हो जाता है यह उक्त कपनका .