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daaraatमांसा
प्रकारके धर्म हैं । जो साधारण धर्म है वे अन्य द्रव्योंसे आत्मद्रव्यके मेदक नहीं हो सकते। जो असाधारण होकर भी पर्यायरूप हैं वे भी एक त्रिकालवर्ती आत्मद्रव्यका ख्यापन करनेमें असमर्थ हैं। और जो असाधारण होकर भी त्रिकाल व्याप्ति समन्वित है जैसे चारित्र, सुख और वीर्य आदि सो वे भी बोधगम्य होने पर ही माने जाते हैं । अत. वे स्वयं आत्मतत्त्वको अन्य द्रव्योंसे पृथक् करनेमें असमर्थ है। रहा दर्शन सो वह अनाकारस्वरूप है । एक ज्ञान ही ऐसा है जो अनुभवगोचर है, इसलिए उस द्वारा आत्मतत्वको अन्य द्रव्योंसे पृथक् करना सम्भव है, इसलिए जिनागममें आत्माको ज्ञानमात्र स्वीकार किया गया है । तत्त्वार्थवार्तिकमे लक्षण किसे कहते हैं इसका निर्देश करते हुए बतलाया है
परस्परव्यतिकरे सति येनान्यस्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम् ।
सभी पदार्थ ( परक्षेत्रपनेकी अपेक्षा ) परस्पर मिलकर रहते हैं, इसलिए जिसके द्वारा एक पदार्थको दूसरे पदार्थसे जुदा किया जाता है उसे लक्षण कहते है ।
इस दृष्टिसे विचार करने पर द्रव्य ( सामान्य ) गुण ( प्रत्येक द्रव्य . व्यापी त्रिकाली विशेष धर्म ) और पर्याय ( प्रत्येक द्रव्यव्यापी एक समयवर्ती धर्मविशेष) का लक्षण स्वतन्त्र रूपसे प्रतीति में आता है । यही कारण है कि प्रकृतमें इसी दृष्टिको माध्यम बना कर अनेकान्तस्वरूप वस्तुकी व्यवस्था की गई है। एक ही वस्तु दूसरी वस्तुसे अत्यन्त भिन्न है यह तो है ही । उसे दिखलाना यहाँ मुख्य प्रयोजन नहीं है । यहाँ तो एक ही वस्तु द्रव्य, गुण और पर्यायपनेकी अपेक्षा कैसे तत् - अतत्, एकअनेक, सत्-असत् और नित्य-अनित्यस्वरूप है यह दिखलाया है । जैनदर्शनमे प्रत्येक वस्तुको अनेकान्तस्वरूप दिखलाना यह मुख्य प्रयोजन है । अन्यथा प्रत्येक वस्तु स्वयं में अनेकान्तस्वरूप नहीं सिद्ध होती ।
तत्वार्थवार्तिक अ० ४ सूत्र ४२ में जीव पदार्थ अनेकान्तात्मक कैसे है इसका विचार करते हुए लिखा है
जीव पदार्थ एक होकर भी अनेकरूप हैं, क्योंकि वह अभावसे विलक्षण स्वरूपवाला है। वस्तुतः देखा जाय तो अभावमें कोई मेद दृष्टिगोचर नहीं होता । उसके विपरीत भावमें तो अनेक धर्म और अनेक भेद दृष्टिगोचर होते हैं । जो घटका उत्पाद है वही पट आदि अनन्त पदार्थों