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जैनतत्त्वमीमांसा गाथामें आया हुआ यति पद ज्ञानियोंके लिये ही प्रयुक्त हुआ है। कारण कि लोकमें साध, यति, मनि आदि जितने भी शब्द प्रयुक्त होते हैं अध्यात्ममें वे सब मेदविज्ञानसम्पन्न जीवके लिये ही प्रयुक्त हुए हैं। यह इसीसे स्पष्ट है कि जो ज्ञानी है उसने अपने अभिप्रायमें सब प्रकारके परभावोंसे अपनेको जुदा कर लिया है। २. भेव विज्ञानको कलाका निर्देश ___ आचार्य कुन्दकुन्दने उक्त सूत्रगाथामें जो कुछ कहा है उसे स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं
वृत्तं ज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवन सदा । एकद्रव्यस्वभावत्वात् मोक्षहेतुस्तदेव तत् ॥१०६।। वृत्तं कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि ।
द्रव्यान्तरस्वभावत्वान्मोक्षहेतुर्न कर्म तत् ।।१०७।। ज्ञान एक द्रव्यका स्वभाव है, इसलिये ज्ञानका ज्ञानरूपसे होना एक मात्र वही मोक्षका हेतु है ।।१०।। किन्तु कर्मका (रागका) स्वभाव अन्य द्रव्यरूप है, इसलिये ज्ञानका उस रूपसे नहीं होनेके कारण कर्म मोक्षका हेतु नही है ।।१०।।
यह भेद विज्ञानकी कला है । इस कलाके प्राप्त होने पर ही आत्मा अज्ञानभावसे मुक्त होकर मोक्षका पात्र होता है। इसकी प्राप्तिमें अज्ञानभावका अणुमात्र भी योगदान नहीं है। वे पुन इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए कहते हैं
सर्वत्राध्यवसानमेवमखिल त्यात्यं यदुक्तं जिनः तन्मन्ये व्यवहार एक निखिलोन्याश्रितस्त्याजितः । सम्यक् निश्चयमेकमेव परमं निष्कम्पमाक्रम्य किं
शुद्धज्ञानधने महिन्नि न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम् ॥१७३॥ बाह्य सभी पदार्थोके आलम्बनसे जो अध्यवसान भाव होते हैं उन सभीको जिनेन्द्रदेवने त्यागने योग्य कहा है, इसलिये हम मानते हैं कि जिनेन्द्रदेवने परको निमित्तकर होनेवाले सभी प्रकारके व्यवहारको छुड़ाया है। फलस्वरूप जो सत्पुरुष हैं वे सम्यक् प्रकारसे एक निश्चय (ज्ञायकस्वरूप आत्मा) को हो निश्चलरूपमे अंगीकार कर शुद्ध (केवल) ज्ञानधनस्वरूप अपनी महिमामें स्थिरताको क्यों नहीं धारण करते ।१७३।
पर पदार्थोमें आत्मबुद्धि होना अध्यवसान भाव है। यह सामान्य