________________
३४८
जैनतत्त्वमीमांसा जाता है। निमित्त-नैमित्तिकभावकी यह व्यवस्था अनादिकालसे बन रही है। कोई उसमें उलट-फेर नहीं कर सकता, अतएव प्रत्येक कार्य स्वकालमें उपादानके अनुसार अपने पुरुषार्थसे होता है यही श्रद्धा करनी हितकारी है। इस प्रकार दोनों नयोंको अपेक्षा विवेचन करनेको यह पद्धति है, अतः जहाँ जिस नयको अपेक्षा विवेचन किया गया हो उसे उसी रूपमें ग्रहण करना चाहिए। उसमे अन्यथा कल्पना करना उचित नहीं है। निश्चय कथन यथार्थ है और व्यवहार कथन उपचरित (अयथार्थ) है, अतः उपचरित कथनसे दृष्टिको परावृत्त करनेके लिए वक्ता यदि मोक्षप्राप्तिमें परम साधक निश्चय रत्नत्रयकी दृष्टिसे तत्त्वका विवेचन करना है तो इससे व्यवहारधर्मका कैसे लोप होता है यह हमारी समझके बाहर है। जब कि वस्तुस्थिति यह है कि निश्चय रत्नत्रयके अनुरूप तत्त्वका निर्णय हो जानेपर उसकी यथापदवी उपासना करनेवाले व्यक्तिकी जब जो व्यवहार धर्मरूप प्रवृत्ति होती है वह शुभरूप पुण्यवर्धक ही होती है । प्रायः अशुभमें तो उसको प्रवृत्ति होती ही नहीं। इस प्रकार निश्चयनय और व्यवहारनय क्या है, उनके अनुसार तत्त्वविवेचनकी पद्धति क्या है और मोक्षमार्गमें क्यों तो निश्चयनय आश्रयणीय है और क्यों व्यवहारनय आश्रयणीय नहीं है इसका सांगोपांग ऊहापोह किया।