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जैनतत्त्वमीमांसा येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति ।
येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥२१४॥ जिस अंशसे यह जीव सम्यग्दृष्टि है उस अंशसे इसके बन्धन नहीं है। किन्तु जिस अंशसे राग है उस अंशसे इसके बन्धन है ।।२१२। जिस अंशसे यह जीव ज्ञान है उस अंशसे इसके बन्धन नहीं है। किन्तु जिस अशसे राग है उस अशसे इसके बन्धन है ।।२१३।। जिस अंशसे यह जीव चारित्र है उस अंशसे इसके बन्धन नहीं है। किन्तु जिस अंशसे राग है उस अंशसे इसके बन्धन है ।।२१४॥ २३ उपदेश देनेकी पद्धति ___ इस प्रकार निश्चयनय और व्यवहारनयके विवेचन द्वारा यह निर्णय हो जाने पर कि मोक्षमार्गमें क्यों तो मात्र निश्चयनय उपादेय है और क्यों यथापदवी जाननेके लिए प्रयोजनवान् होने पर भी व्यवहारनय अनुपादेय है, यहां उनके आश्रयसे उपदेश देनेकी पद्धतिको मीमांसा करनी है। यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि निश्चयनयमे अमेदकथनको मुख्यता होनेसे वह परसे भिन्न ध्रुवस्वभावो एकमात्र ज्ञायकभाव आत्माको ही स्वीकार करता है। प्रकृतमें परका पेट बहुत बड़ा है। उसमें स्वात्मातिरिक्त अन्य द्रव्य अपने गुण-पर्यायके साथ तो समाये हए है ही। साथ ही जिन्हे व्यवहारनय (पर्यायाथिकनय) स्वात्मारूपसे स्वीकार करता है वे भी इस नयमें पर हैं, इसलिये निश्चयनय स्वात्मारूपसे न तो गुणभेदको स्वीकार करता है, न पर्यायभेदको ही स्वीकार करता है और न बाह्य निमित्ताश्रित विभावभावोको ही स्वीकार करता है। संयोग पर उसकी दृष्टि ही नहीं है। ये सब उसकी दृष्टि में पर है, इसलिए वह इन सब विकल्पोंसे मुक्त अभेदरूप और नित्य एकमात्र ज्ञायकस्वभाव आत्माको ही स्वीकार करता है।
कार्यकारण पद्धतिकी अपेक्षा विचार करने पर जब वह ज्ञायक स्वभाव आत्माके सिवा अन्य सबको पर मानता है तब वह अन्यके आश्रयसे कार्य होता है इस दृष्टिकोणका कैसे स्वीकार कर सकता है अर्थात् नहीं कर सकता, इसलिये उसकी अपेक्षा एकमात्र यही प्रतिपादन किया जाता है कि जो कुछ भी कार्य होता है वह उपादानमें स्वाश्रयसे ही होता है। जो इसका निज भाव है बही अपनी परिणमनरूप सामर्थ्यके द्वारा कार्यरूप परिणत होता है। यह तो निश्चयनयको तत्त्वविवेचनकी पद्धति है।