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जैनतत्त्वमीमांसा है। यदि रज्जुको देखकर 'सर्प भी इसी प्रकारका होता है' ऐसा ज्ञान होता तो वह अयथार्थ कथन न माना जाता, परन्तु प्रकृतमें रज्जुको ही सर्प मान लिया गया है, इसलिए इसे असत्य कथनका उदाहरण स्वीकार किया गया है। ___ असत्य कथन और उपचरित कथनमें क्या अन्तर है यह उक्त विवेचनसे स्पष्ट हो जाता है । साथ ही परमागममें अनुपचरित कथनके साथ उपचरित कथनको क्यों स्थान दिया गया है यह भी उक्त विवेचनसे स्पष्ट हो जाता है। ३. प्रकृतमें कतिपय उपयोगी सिद्धान्त
(१) कथा चार प्रकारकी होती है—आक्षेपणी कथा, विक्षेपणी कथा, संवेदनी कथा और निर्वेदनी कथा । इनमेंसे विक्षेपणी कथा किसे कहते हैं इसका निर्देश करते हुए बतलाया है कि जिसमें सर्वप्रथम परसमयके द्वारा स्वसमयमें दोष बतलाये जाते है, अनन्तर परसमयकी आधारभूत अनेक एकान्त दृष्टियोंका शोधन करके स्वसमयकी स्थापना कर छह द्रव्य और नौ पदार्थोंका प्ररूपण किया जाता है उसे विक्षेपणी कथा कहते है। विक्षेपणी कथाके स्वरूपका विचार करने पर विदित होता है कि जैन दर्शन और जैन न्यायका जो भी साहित्य उपलब्ध होता है उसका मुख्यतासे विक्षेपणी कथामें ही अन्तर्भाव होता है, क्योकि जैनदर्शन और न्यायके ग्रन्थोंमें सर्वप्रथम अन्य दर्शनके मन्तव्यकी स्थापना कर उसका निरसन किया जाता है और ऐसा करते हुए उभय पक्ष मान्य हेतुओंके बलसे परसमयके निरसनपूर्वक स्वसमयकी स्थापना की जाती है। वहाँ उपादानकी विवक्षा न कर जो बाहय ( उपचरित ) हेतुओंको मुख्यता दी जाती है उसका एकमात्र यही कारण है।
(२) शेष तीन प्रकारको कथाओंमें स्वसमयकी प्ररूपणाकी मुख्यता होते हुए भी उनमें जो यहाँ-वहाँ परसापेक्ष कथनकी बहलता दिखलाई देती है सो उसका यह आशय नहीं है कि धर्म या धर्मी किसीका भी स्वरूप परसापेक्ष होता है। इतना अवश्य है कि कर्ता और कर्ममें अविनाभाव होनेके कारण जिस प्रकार यह व्यवहार किया जाता है कि यह इसका कर्ता है और यह इसका कर्म है या प्रमाण और प्रमेयमें अविनाभाव होनेके कारण जिस प्रकार यह व्यवहार किया जाता है कि यह इसका ज्ञापक है और यह इसका ज्ञाप्य है उसी प्रकार धर्म और धर्मीमें भी अविनाभाव होनेके कारण यह व्यवहार किया जाता है कि यह इसका