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जैनतत्त्वमीमांसा समाधान-यह परमार्थ कथन नहीं है। व्यवहार कथन है । परमार्थ तो यही है कि प्रत्येक जीव अपने द्वारा किये हुए कार्यके अनुसार ही उत्तर कालमें उसका फल भोगता है। उसमें भी यह नैगम नयका कथन है। पर्यायाथिक नयसे विचार करने पर तो जिस समय जो परिणामरूप कार्य होता है वह स्वयं ही होता है। नयदृष्टिको समझ कर निर्णय लेने पर यह सब कथन सुसंगत प्रतीत होने लगता है। इससे प्रत्येक द्रव्य उसके गुण और पर्यायोंकी स्वतन्त्रता अक्षुण्ण बनी रहती है। विचार कर देखा जाय तो ऐसा निर्णय करना ही जैनधर्मका आत्मा है।
पराश्रित व्यवहारनय है इस द्वारा जो कुछ कहा गया है वह मुख्य रूपसे असद्भत व्यवहारनय है। यहाँ पर आचार्य कुन्दकुन्दका परके आश्रयसे इस जीवके जो अध्यवसानभाव होते हैं उन्हें छुड़ानेका अभिप्राय है। उसी प्रसंगसे आचार्य अमृतचन्द्रने व्यवहारनयका यह लक्षण कहा है। ___ यहाँ ऐसा समझना चाहिये कि जितने भी पराश्रित विकल्प होते है वे असद्भूत है । अर्थात् असद्भूत अर्थको विषय करनेवाले हैं। इसीलिये जीव भावसे भिन्न रूपसे उन्हें स्वीकार कर उन्हें आगममें मूर्त भी कहा गया है। फिर भी उन्हें जीवका कहना यह असद्भूत व्यवहारनय है। इसी तथ्यको ध्यानमें रख कर पंचाध्यायीमें असद्भुत व्यवहारका यह लक्षण दृष्टिगोचर होता है
अपि चासद्भूतादिव्यवहारान्तो भवति यथा ।
अन्यद्रव्यस्य गुणा संजायन्ते बलादन्यत्र ॥१-५२९।। अन्य द्रव्यके गुणोंकी बलपूर्वक ( उपचार सामर्थ्यसे ) अन्य द्रव्यमें संयोजना करना यह असद्भूतव्यवहारनय है । इस नयका उदाहरण देते हुए पंचाध्यायीमें कहा है
म यथा वर्णादिमतो मूर्तद्रव्यस्य कर्म किल मूर्तम् ।
तत्संयोगत्वादिह मूर्ता' क्रोधादयोऽपि जीवभवा. ११-५३०।। उदाहरणार्थ वर्ण आदिवाले मूर्त द्रव्यका कर्म एक भेद है, अतः वह नियमसे मूर्त है। उसके संयोगसे क्रोधादिक भी मत हैं। फिर भी उन्हें जीवमें हुए कहना असद्भूत व्यवहार नय है ॥१-५३०॥ ___ यहाँ पर यह प्रश्न होता है कि ऐसा नियम है कि एक द्रव्यके गुणधर्म अन्य द्रव्यमें संक्रमित नहीं होते। ऐसी अवस्थामे प्रकृतमें जीवके