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जैनतस्वमीमांसा समाधान-यह ज्ञानमार्गकी कथनी नहीं है इस बातको वहीं गाथा ८३ में स्पष्ट कर दिया है। अत ऐसा समझना चाहिये कि आगममें कर्मा आदिरूपसे बाह्य निमित्तका जिसना भी कथन दृष्टिगोचर होता है वह सब योग और विकल्पको ध्यानमें रखकर ही किया गया है, ज्ञानमार्गकी मुख्यतासे नहीं। वैसे विविध पदार्थोंका योग नियत क्रमसे बनता रहता है और उनके नियत कालमें परिणामन भी होते रहते हैं। उसी नियत्त क्रमका अविनाभाव देखकर यह कहनेकी पद्धति है कि इससे यह हुमा आदि। ___शंका-यदि ऐसा है तो आगममें जो यह वचन या इसी प्रकारके अन्य वचन उपलब्ध होते हैं कि उभय निमित्तके वशसे आत्माका उत्पन्न होनेवाला परिणाम उत्पाद कहलाता है इत्यादि । सो क्या यह सब कथन अपरमार्थभूत है ?
समाधान-यह वस्तुस्वरूप तो नहीं है। अब रही ऐसे कथनकी बात सो प्रत्येक कार्यके समय नियतबाह्य-अभ्यन्तर उपाधि नियमसे होती है और उससे नियत कार्यकी सिद्धि होती है। इसी तथ्यको ध्यानमे रखकर आगममें उक्त प्रकारके वचन पाये जाते हैं ।
शंका-बाह्य निमित्तको यदि आगममे कर्ता आदिरूपसे नहीं स्वीकार किया गया है तो किस रूपमें स्वीकार किया गया है ?
समाधान-जैसे कोई व्यक्ति देवाधिदेव तीर्थकर जिनका दर्शन कर रहा है तो दर्शन करनेवाला था दूसरा देखनेवाला यह जानता है कि इस व्यक्तिके दर्शनमें देवाधिदेव तीर्थकर जिनमें ज्ञापक निमित्तपनेका व्यवहार होता है। वैसे ही जिस समय जो कार्य होता है उस समय अन्य जिस पदार्थका उस कार्यके साथ अविनाभाव होता है उसमें कारक निमित्तपनेका व्यवहार होता है। यहाँ जिस प्रकार देवाधिदेवने उस व्यक्तिके दर्शन ( श्रद्धा ) को नहीं उत्पन्न किया है। वह अपने कालमें स्वयं उत्पन्न हुआ है वैसे ही उस बाह्य पदार्थने कार्यको नहीं उत्पन्न किया है वह अपने कालमें स्वयं उत्पन्न हुआ है। इसलिये उस समय बाह्य पदार्थमें निमित्त व्यवहार बन जाने पर भी कर्ता आदि व्यवहार करनेके लिये पुनः उपचार करना पड़ता है। वास्तवमें देखा जाय तो इस प्रकारका जितना भी व्यवहार किया जाता है वह सब परमार्थकी परिधिसे बाह्य है। अर्थात् वस्तुस्वरूपमें यह सब व्यवहार घटित नहीं होता।