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जेनतत्त्वमीमांसा मात्र जब समझना अभूतार्थ है और निर्मलोके निक्षेप द्वारा कीचड़से पृथक किया गया जल सहज जल होनेसे भूतार्थ है। उसी प्रकार कर्म सयुक्त अवस्थामें जीवका सहज स्वरूप तिरोहित रहता है, इसलिए ऐसी अवस्थायुक्त जीवको मात्र जीव समझना अभूतार्थ है और शुद्ध दृष्टिके द्वारा कर्मसंयुक्त अवस्थासे त्रिकालो ज्ञायक स्वभाव आत्माको पृथक करके उसे ही आत्मा समझना ( अनुभवना ) भूतार्थ है। इस प्रकार भूतार्थ क्या है और अभूतार्थ क्या है इसका स्पष्टीकरण करके जीवको अपने सहज कर्तव्यका बोध कराते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि जो अपनो निर्विकार अवस्थाको प्राप्त करनेके मार्ग पर आरूढ़ हैं अर्थात् कर्मसंयुक्त अवस्थासे भिन्न आत्माका अनुभव करनेवाले सम्यग्दृष्टि हैं या उस मार्ग पर आरूढ हुए है उन्हे कर्मसंयुक्त अवस्थाको आत्मा कहनेवाले व्यवहारनयका अनुसरण करना योग्य नहीं है, क्योंकि जो कर्मसंयुक्त अवस्थाको ही आत्मा समझकर उसका अनुसरण करते रहते है वे कभी भी संसारका अन्त कर परमार्थ प्राप्तिके मार्गको उद्घाटित करनेमें समर्थ नहीं होते।
यहाँ यह प्रश्न है कि संसारकी भूमिकामें जीव कर्मसंयुक्त अवस्थावाला अभूतार्थ ही उपलब्ध होता है ऐसी अवस्थामें भूतार्थकी उपलब्धि न होनेसे उसका अनुसरण करना कैसे सम्भव है। यह एक मोलिक प्रश्न है जिसका समाधान यद्यपि उक्त कथनसे ही हो जाता है पर उसका विशद विवेचन करते हुए आचार्य कुन्दकुन्दने भगवान् अरहंतदेवकी जिस वाणीको लिपिबद्ध किया है उसे हम यहाँ उद्धृत कर रहे है
ण वि होदि अपमत्तो ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो ।
एव भणति शुद्ध णाओ जो सो उ सो चेव ॥ ६ ॥ जो ज्ञायक भाव है वह न अप्रमत्त है और न प्रमत्त है। इस प्रकार उसे शुद्ध कहते है और इस विधिसे जो ज्ञात हुआ वह तो वही है ।।६।। ___ आचार्यदेव कहते हैं कि प्रमत्त और अप्रमत्त ये दोनो कर्मसंयुक्त अवस्थाएँ है इसलिए अभूतार्थ है । इन दोनोंसे भिन्न जो आत्माको अनुभवता है उसे शुद्ध कहते है। यहाँ अनुभव करनेवाला आत्मा और अनुभवका विषयभूत आत्मा ये दो हुए ऐसे प्रश्नका उत्तर देते हुए आचार्य कहते है कि जो अनुभव करनेवाला है और जिसका अनुभव किया गया है ये दो नहीं है, कर्ता-कर्ममें अभेद होनेसे दोनों एक ही हैं।
यहाँ ज्ञान-दर्शन स्वभाववाला होनेसे हो आत्माको ज्ञायक कहा गया