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________________ २९३ . निश्चय व्यवहारमीमांसा प्रमाणशानमें अंशभेदसे वस्तुको जानना अविवक्षित रहता है जब कि नयज्ञानमें अंशभेद मुख्य होकर उस द्वारा वस्तुको जाना जाता है। इसलिये नयका लक्षण करते हुए आचार्य पूज्यपाद सर्वार्थसिदिमें कहते हैं वस्तुन्यनेकान्तात्मनि अविरोधेन हेत्वपंणात्साध्यविशेषस्य माथात्म्यप्रापणप्रवणः प्रयोगो नमः । १० १, सू० ३३ । अनेकान्तात्मक वस्तुमें अविरोधपूर्वक हेतुकी मुख्यतासे साध्यविशेषकी यथार्थताके प्राप्त करानेमे सयर्थ प्रयोगका नाम नय है। ____ आचार्य पूज्यपादने नयका यह लक्षण नयसप्तभंगीको लक्ष्यमें रखकर वचननयको मुख्यतासे किया है। तत्त्वार्थवार्तिकमें भी यही सरणि अपनाई गई है। ज्ञाननयका लक्षण करते हुए नयचक्रमें यह वचन आया है जं पाणीण वियप्पं सुभमेयं वत्युअंससंग्गहणं । तं इह णयं पउत्तं पाणी पुण तेण गाणेण ॥१७३॥ वस्तुके एक अंशको ग्रहण करनेवाला जो ज्ञानीका विकल्प होता है, जो कि श्रुतज्ञानका एक भेद है उसे प्रकृतमे नय कहा गया है। यतः नयज्ञान सम्यक् श्रुतका अंश है, अतः उस ज्ञानसे युक्त जीव ज्ञानी है ।।१७३॥ शका-वस्तु अनेकान्तात्मक होती है, इसलिये एक अंशको ग्रहण करनेवाले ज्ञानको सम्यक् नय कहना उचित नहीं है ? समाधान-अनेकान्तका द्योतक स्याद्वाद होता है और स्याद्वादकी प्रतिपत्ति नयके बिना हो नहीं सकती, इसलिये नयज्ञानको सम्यग्ज्ञानके अंगरूपमें स्वीकार किया गया है। नयचक्रमें कहा भी है जम्हा ण णयण विणा होई परस्स सियवायपडिवत्ती। तम्हा सो गायब्बो एयंतं हतुकामेण ॥ १७४ ॥ यतः नयके बिना मनुष्यको स्याद्वादको प्रतिपत्ति नही होती, अत. जो एकान्तके आग्रहसे मुक्त होना चाहता है उसे नय जानने योग्य है ।। १७४ ॥ इसो तथ्यको पुष्ट करते हुए वे पुनः कहते हैं जह सवाणं' आई सम्मत्तं जह सवाई गुणणिलए । क्षेत्रो वा एयरसों तह भयभूलं अणयंतो ॥ १७६ ।। १. सत्याणं नयचक्र मु. की० वि० सं० २४९७ । २. पादुवाए रसोबही ।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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