________________
२८८
जेनसस्वमीमांसा ही परमार्थभूत प्रतीत होता है। इन सब तथ्योंको दृष्टिमें रखकर यदि मनुष्यके विवेकमें यह बात आ जाय कि जिस निश्चय उपादानसे जो कार्य होनेवाला है उसे हम अपने तथाकथित प्रयत्न या बाह्य निमित्त द्वारा त्रिकालमें भी नहीं बदल सकते तो उसे 'सम्यक नियति को स्वीकार करनेमें रंचमात्र भी अड़चन न रहे। समय कथनका तात्पर्य यह है कि नियति शब्द द्वारा कोई भी द्रव्य या द्रव्यांश, गुण या गुणांश अन्य हेतुओंसे अन्यथा परिणमन नहीं कर सकता यह सूचित किया गया है। कोई भी कार्य पर्यायार्थिनयकी अपेक्षा स्वयं होकर भी नैगम (व्यवहार) नयकी अपेक्षा अपने निश्चय उपादान और बाह्य निमित्तके बिना अपने आप होता है ऐसा नहीं है। इस प्रकार जैनधर्ममे सम्यक नियतिका क्या स्थान है और वह किस रूपमें स्वीकार की गयी है इसका सम्यक विचार किया।