________________
२८६
जैनतत्त्वमीमांसा करता है। इसके सिवा कोई भी व्यक्ति अन्य कोई कार्य उत्पन्न करनेको सामर्थ्य रखता हो और अपने पुरुषार्थ द्वारा उसे उत्पन्न करता हो तो हमें ज्ञात नहीं।
सम्भवत पुरुषार्थवादियोंका यह कहना हो कि जो यह जीव अपने अज्ञानभावके कारण अनादि कालसे परतन्त्र हो रहा है उसका अन्त करना ही इसका मच्चा पुरुषार्थ है तो इसके लिए रुकावट ही कोन डालता है। किन्तु उसे अपने अज्ञानभावका अन्त स्वयं करना होगा। यह कार्य बाह्य सामग्रीका नहीं है । अन्य पर्यायके कालमे यदि वह अज्ञानभावका अन्तकर अपनी इच्छानुसार ज्ञानमय पर्यायको उत्पन्न करना भी चाहे तो इतना स्पष्ट है कि अपने चाहने मात्रसे तो अज्ञान भावका अन्त होकर ज्ञानमय पर्याय उत्पन्न होगी नहीं। न तो कभी ऐसा हुआ और न कभी ऐसा होगा ही, क्योकि पर्यायको उत्पत्तिमें जो स्वभाव आदि पाँच कारण बतलाये हैं उनका समवाय होने पर ही कोई भी पर्याय उत्पन्न होती है ऐसा नियम है। इसके साथ यह भी निश्चित है कि इनमेंसे कोई कारण पहले मिलता हो और कोई कारण बादमें यह भी नहीं है, क्योंकि इनका समवाय प्रति समय एक साथ ही होता है और प्रति समय नियमसे कार्य होता है। बाह्य निमित्तकी निमित्तता भी तभी मानी जाती है। इसलिए पुरुषार्थकी हानि बतला कर सम्यक नियतिका निषेध करना उचित नही है ।
सम्यक नियतिका वास्तविक अर्थ है कि बाह्य द्रव्यादिकी नियत अवस्थितिके साथ जो कार्य जिस निश्चय उपादानसे होनेवाला है वह उस स्थितिमे ही होगा अन्य स्थितिमे नहीं होगा। इसमे सम्यक् नियतिकी स्वीकृतिके साथ कार्य-कारण प्रक्रियाको भी स्वीकार कर लिया गया है। जैनधर्ममे जो सम्यक नियतिको स्वीकार किया गया है वह इसी अर्थमें स्वीकार किया गया है। यहाँ सम्यक नियतिका अन्य कोई अर्थ नही है। इसके स्थान में यदि कोई चाहे कि जो कार्य जिस निश्चय उपादानसे होनेवाला है उसके स्थानमें अन्य निमित्तसे उस कार्यको उत्पत्ति अपने पुरुषार्थ द्वारा की जा सकती है तो उसका ऐसा सोचना भ्रम है। अतएव सम्यक नियति कोई स्वतन्त्र पदार्थ न होकर पूर्वोक्त विविसे कार्यकारणपरम्पराका एक अंग है ऐसा श्रद्धान करके ही चलना चाहिए। इतना अवश्य है कि जैन साहित्यमें नियति या नियत शब्द निश्चय, उपादान, योग्यता, नियम और स्वभावके अर्थ में व्यवहत हमा