________________
सम्यक् नियतिस्वरूपमीमांसा २७७ बन जाते हैं आदि, क्योंकि अब प्रत्येक कार्यमें निश्चय उपादानकी मुख्यता न रहकर बाह्य सामग्रीकी मुख्यता मान ली जाती है सब यह मान लेने में आपत्ति ही क्या हो सकती है, इसलिये इस आपत्तिसे बचनेके लिये आगमको साक्षीमें यहो स्वीकार कर लेना ही उचित प्रतीत होता है कि तीनों कालोंकी पर्यायें अपने निश्चय उपादानके अनुसार क्रमनियमित ही होती हैं। यही कालनियम है और इसीलिये प्रत्येक कार्यमें कालकी निमित्तता स्वीकार की गई है।
भावकी अपेक्षा-कषायस्थान और अनुभागस्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं तथा योगस्थान जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। ये न्यूनाधिक नहीं होते। स्थूलरूपसे सब लेश्याएं छह हैं। उनके अवान्तर भेदोंका प्रमाण भी सुनिश्चित है। देवलोकमें तीन शुभ लेश्याएं और नरक लोकमें तीन अशुभ लेश्याएं ही होती हैं। उसमें भी प्रत्येक देवलोककी और प्रत्येक नरकलोककी लेश्या सुनिश्चित है। यह भी नियम है कि मनुष्य या तिर्यश्च जिस स्वर्ग या नरकमें जाता है उसकी मरणके अन्तमुहूर्त पहले वह लेश्या नियमसे हो जाती है। ऐसा क्यों होता है ? बाह्य सामग्रीके बलसे उसमें फेर-फार क्यों नहीं हो पाता, विचार कीजिये। यदि किसी तिर्यञ्च या मनुष्यने देवायुका बन्ध किया हो और मरणके समय वह अशुभ लेश्यामें मरे तो वह भवनत्रिकमें ही उत्पन्न होता है, सो क्यो ? विचार कीजिये। इसी प्रकार भोगभूमिके मनुष्यों और तियं चोमे भी लेश्याका नियम है। कर्मभूमिमें और एकेन्द्रियादि जीवोंमें यथासम्भव लेश्या परिवर्तन होता है अवश्य पर वह नियत क्रमसे ही होता है, सो क्यों ? विचार कीजिये ।
गुणस्थानोंमें भी परिणामोंका उतार-चढ़ाव शास्त्रोक्त नियत क्रमसे ही होता है। अधःकरण आदि परिणामोका क्रम नियत है। तथा उसमे किस परिणामके सद्भावमें क्या कार्य होता है यह भी नियत है। एक सप्तम नरकका नारकी और एक नौवें ग्रेवेयकका देव ये दोनों जब प्रथमोपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं तब इनके लेश्यामेद, गतिभेद आदि होनेपर भी अधःकरण आदि परिणामोंकी जातिमें अन्तर नहीं होता। कोई इसका अन्तरंग कारण तो होना चाहिये ? विचार कीजिये। उनके सद्भावमें जो कार्य होते हैं वे किसीके हों और किसीके न हों ऐसा न होकर स्थितिबन्वापसरण मादि कार्य सबके होते है सो क्यों ? विचार कीजिये। एक गुणितकर्माशिक जीव है और एक क्षतिकर्मा