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जनतत्त्वमीमांसा
महाशय कर्मकाण्डकी पूर्वोक्त गाथा परसे यह अर्थ निकाले कि जैनदर्शन में सम्यक् नियति ( निश्चय उपादान) को रंचमात्र भी स्थान नहीं है तो उसका उस परसे यह अर्थं फलित करना अज्ञान ही कहा जायगा, क्योंकि कार्य-कारण परम्परा में उपादान - उपादेयके अविनाभावको स्वीकार करनेसे तो सम्यक् नियतिका समर्थन होता ही है । साथ ही जैनदर्शन में ऐसी व्यवस्थाएँ भी स्वीकार की गई हैं जिनसे स्पष्टतः सम्यक् नियतिका समर्थन होता है । यथा
द्रव्योंकी अपेक्षा - सामान्यसे सब द्रव्य छह हैं। विशेषकी अपेक्षा जीव द्रव्य अनन्त है, पुद्गल द्रव्य उनसे भी अनन्तगुणे हैं, काल द्रव्य असंख्यात हैं तथा धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक-एक हैं। ये सब द्रव्य अपने-अपने गुण- पर्यायोंमे नियत है। किसी भी द्रव्यके गुण-पर्याय किसी दूसरे द्रव्यके नहीं होते । ये उत्पाद व्यय स्वभाववाले होकर भी इनकी संख्या मे वृद्धिहानि नही होती । सदा अन्वयकी अपेक्षा ध्रुवस्वभावको लिये हुए बने रहते हैं। ये सब द्रव्य एक साथ रहते है पर कोई भी द्रव्य अपना स्व' दूसरेको समर्पण नहीं करना और न ही दूसरेके 'स्व' को स्वीकार ही करता है । इसीलिये आगममे वस्तुका वस्तुत्व बतलाते हुए कहा गया है कि स्व'का उपादान और 'पर' का असोहन करके रहना ही वस्तुका वस्तुत्व है । द्रव्य कहो या वस्तु कहो दोनोंका अर्थ 'एक ही है। प्रत्येक द्रव्यकें अनन्तगुण और कालद्रव्यके समयोंके बराबर अनन्त पर्यायें है ।
क्षेत्र अपेक्षा - आकाशके दो भेद हैं--लोकाकाश और अलाकाकाश । अलोकाकाश अनन्तप्रदेशी है और लोकाकाशके असंख्यात प्रदेश है । ऐसा स्वयंसिद्ध नियम है कि छहो द्रव्य लोकाकाशमें ही स्वयं अवस्थित रहते हैं । इन्हे किसीने लाकर यहाँ रखा हो या धर्म-अधर्म द्रव्यने उन्हे कैदकर रखा हो ऐसा नहीं है ।
लोकाकाश अखण्ड एक होकर भी प्रयोजन विशेषमे उसके तीन भेद किये जाते है -- ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक । स्वभावतः वैमानिक देव और सिद्धोके सदाकाल रहनेरूप क्षेत्रको ऊर्ध्वलोक कहते हैं । ऐसा स्वभावसिद्ध नियम है कि यहाँ एकेन्द्रिय जीवोंकी उत्पत्ति तो होती है, पर अन्य द्वीन्द्रियादि जोव त्रिकालमें नहीं पाये जाते । चित्रा पृथिवीसे लेकर ऋजु विमानक अधोभाग तक मध्य लोक है । यहाँ एकेन्द्रिय जीव तो पाये ही जाते है, अन्य द्वीन्द्रिय आदि जीव भी पाये जाते