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जैनतस्वमीमांसा उसी विधिसे उसका उत्पादक होता है। यह उत्पाद्य-उत्पादकभाव ही वस्तुतः कारण-कार्यभाव है। इसके सिवाय अन्य सब उपचरित कवन मात्र है जो उक्त प्रकारके निश्चयकी सिद्धिके लिये किया जाता है।
इस प्रकार जीवनमे 'क्रमनियमितपर्याय' के सिद्धान्तको स्वीकार करनेका क्या महत्व है और उसकी सिद्धि किस प्रकार होती है इसकी मीमांसा की।