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क्रम-नियमितपर्यायमीमांसा
२५७ कथन किया गया है। पर इस परसे यह फलित करना उचित नहीं है कि उस कालमें निश्चय उपादानकी द्रव्य-पर्याय योग्यता सो आगे भी जानेको थी पर उपचारित हेतु न होनेसे सिद्ध जीवोंका और ऊपर गमन नहीं हुआ। उससे ऐसा अर्थ फलित करनेपर जो अर्थ विपर्यास होता है उसका वारण नहीं किया जा सकता (अतएव परमार्थरूपमें यही मानना उचित है कि वस्तुतः प्रत्येक कार्य तो प्रत्येक समयमें अपनेअपने निश्चय उपादानके अनुसार ही होता है। किन्तु जब कार्य होता , है तब अन्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव स्वयमेव उसमें उपचरित हेतु होते हैं। परमार्थसे किसी कार्यका मुख्य हेतु हो और उपचरित हेतु न . हो ऐसा नहीं है। किन्तु जब जिस कार्यका मुख्य हेत होता है तब उसका उपचरित हेतु होता ही है ऐसा नियम है। भावलिङ्गके होनेपर' उसके द्रव्यालग नियमसे पाया जाता है यह विधि इसी आधारपर फलित होती है। यह हम मानते हैं कि शास्त्रोंमें लोकालोकका विभाग उपचरित हेतुके आधारसे बतलाया गया है। परन्तु वह व्याख्यान करनेकी एक शैली है, जिससे हमें यह बोध हो जाता है कि गतिमान जीवों और पुद्गलोंका निश्चयसे लोकान्त तक ही गमन होता है, लोकके बाहर स्वभावसे उनका गमन नहीं होता। और इसीलिये आगममें यह भी कहा गया है कि यह लोक अकृत्रिम, अनादि निधन और स्वभावसे निवृत्त हैं।
इस प्रकार इतने विवेचनसे यह सिद्ध हुआ कि प्रत्येक निश्चय उपादान अपनी-अपनी स्वतन्त्र योग्यता सम्पन्न होता है और उसके अनुसार उसका ध्वंस होकर प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति होती है। तथा इससे यह भी सिद्ध हुआ कि प्रत्येक समयका निश्चय उपादान पृथक्पृथक है, इसलिए उनसे क्रमशः जो-जो पर्यायें उत्पन्न होती हैं वे अपनेअपने कालमें नियत हैं। वे अपने-अपने समयमें ही होती हैं आगे-पीछे नहीं होती इस तथ्यका समर्थन स्वामीकार्तिकेय द्वादशानुप्रेक्षाको २२२२२३ कारिकासे भी होता है
इसी बातको स्पष्ट करते हुए अमृतचन्द्र आचार्य प्रवचनसार गाथा ९९ की टीकामें कहते हैं
यथैव हि परिगृहीतवाधिम्नि प्रलम्बमाने मुक्ताफलवामिनि समस्तेष्वपि स्वधामसूचकासत्सु मुक्ताफलसरोतरेषु धामसूतरोतरमुक्ताफलानामुष्यात पूर्व