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जैनतत्वमीमांसा मोक्षरूप स्वभाव पर्यायकी उत्पत्ति तो व्यवहार रत्नत्रयके बिना ही हो जाय और निश्चय रत्नत्रयकी उत्पत्ति व्यवहार रत्नत्रयके आधार पर हो। यदि निश्चय रत्नत्रयकी उत्पत्ति व्यवहार रत्नत्रयके आधार पर मानी जाय तो मोक्षको उत्पत्ति भी व्यवहार रत्नत्रयके आधार पर मानी जानी चाहिये । परन्तु ऐसा है नही। इससे सिद्ध है कि जैसे मोक्षकी उत्पत्ति व्यवहार रत्नत्रयके आधार पर नही होती वैसे ही निश्चय रत्नत्रयकी उत्पत्ति भी व्यवहार रत्नत्रयके आधार पर नहीं होती यही मान लेना उपयुक्त है।
दूसरे मिथ्यादृष्टिके व्यवहार रत्नत्रय होता भी नहीं, फिर क्या कारण है कि वह उत्तर कालमें यथासम्भव निश्चय रत्नत्रयका पात्र बन जाता है। मिथ्यादृष्टिके व्यवहार रत्नत्रय होता ही नहीं इसे तो वे महाशय भी स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार चौथे और पाँचवें गुणस्थानकी अपेक्षा भी समझ लेना चाहिये । चौथे गुणस्थानवालेके पाँचवें गुणस्थानका व्यवहार रत्नत्रय नहीं होता, फिर ये पाँचवें गुणस्थानके निश्चय रत्नत्रयको कैसे प्राप्त होते है। इसी प्रकार पाँचवें गुणस्थानवाला घटे गुणस्थानके व्यवहार रत्नत्रयके क्रमको छोडकर सातवें गुणस्थानको जैसे प्राप्त करता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि और अविरत सम्यग्दृष्टि भी यथासम्भव व्यवहार रत्नत्रयके बिना पाँचवे या सातवे गुणस्थानको प्राप्त कर लेते है। क्या कभी अपने अभिमतको व्यक्त करनेके पूर्व इन महाशयोने इस बातका भी विचार किया। यदि नही तो उन्हे ऐसी आगविरुद्ध बात तो नहीं लिखनी चाहिये जिससे आगमकी मर्यादा ही समाप्त होती हो।
शका-तो फिर आगम क्या है ?
समाधान-बृहद्रव्य संग्रहमे बतलाया है कि दोनो प्रकारके मोक्ष मार्गकी प्राप्ति ध्यानमे होती है यह आगम है । यथा
दुविह पि मोक्खमग्गं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा ।
तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसह ।। ४७ ॥ यतः दोनो प्रकारका मोक्षमार्ग मुनि ध्यानमें प्राप्त करता है, इसलिये तुम्हे प्रयत्न चित्त होकर ध्यानका अभ्यास करना चाहिये ॥४७॥
यहाँ मुनिपद ज्ञानीके अर्थमें आया है। उपलक्षणसे जो योग्य पुरुषार्थ द्वारा आत्माके सन्मुख है उसका भी ग्रहण किया गया है। इसका अर्थ