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प्राक्कथन
चाहिए । व्यवहारनय पराश्रित होनेसे ऐसे ही कथनको स्वीकार करता है, इसलिए मोक्षमार्गमें उसे गौण कर स्वाधीन सुखके कारणभूत निश्चयनयका आश्रय लेनेका उपदेश दिया गया है। संसार अवस्थामें निश्चयके साथ जहाँ जो व्यवहार होता है, होओ। पर इस जीवको यदि ऐसी श्रद्धा हो जाय कि जहाँ जो व्यवहार होता है वह पराश्रित होनेसे हेय है और निश्चय स्वाश्रित होनेसे उपादेय है तो ऐसे व्यवहारसे उसका बिगाड़ नहीं। बिगाड तो व्यवहारको उपादेय मानकर उससे मोक्षकार्यकी सिद्धि मानने है । अत मोक्षेच्छुक प्रत्येक प्राणीको यही श्रद्धा करनी चाहिए कि मोक्षकार्यकी सिद्धि मात्र निश्चयका आश्रय लेनेसे ही होगी, व्यवहारका आश्रय लेनेसे त्रिकालमें नहीं होगी। संसारी जीवके स्वाधीन होनेका यही प्रशस्त मार्ग है। ___ यह तो उपादान-निमित्तके आधारपर व्यक्तिस्वातन्त्र्यको प्राप्त करनेका क्या मार्ग है इसकी चरचा हुई। इसी प्रकार और भी बहतसे विचार हैं जिनके सम्बन्धमें परमार्थसत्य क्या है इसे जानकर ही उसे ग्रहण करना चाहिए । उदाहरणार्थ शास्त्रोंमें यथास्थान निश्चयनय और व्यवहारनयके आश्रयसे कथन किया गया है। उसमें निश्चयनयकी अपेक्षा जो कथन किया गया है वह यथार्थ है क्योकि निश्चयनय जैसा वस्तुका स्वरूप है उसका उसी रूपमें निरूपण करता है। परन्तु व्यवहारनयकी अपेक्षा जो कथन किया गया है वह यथार्थ नहीं है, क्योंकि जैसा वस्तुका स्वरूप है उसका यह नय अन्यथा निरूपण करता है। जैसे शास्त्रोंमें कही पर प्रत्येक द्रव्य अपने परिणमन लक्षण कार्यका कर्ता है ऐसा लिखा है और कही पर अन्य द्रव्यके कार्यका कर्ता है ऐसा लिखा है । सो इन उदाहरणोंमें जहाँ पर प्रत्येक द्रव्यको अपने परिणमन लक्षण कार्यका कर्ता बतलाया है वहाँ उस कथनको यथार्थ जानना चाहिए। और जहाँ पर अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यके कार्यका कर्ता बतलाया है उसे उपचरित कथन जानना चाहिए, क्योंकि अन्य द्रव्यके कार्यको अन्य द्रव्य करता नहीं। कारण कि एक द्रव्यमें दूसरे व्यके कार्यके करनेका कर्तृत्व धर्म नहीं पाया जाता। फिर भी अन्य द्रव्य निमित्त होता है, इसलिए उस द्रव्यको निमित्तता दिखलानेके लिए उपचारसे उसे कर्ता कह दिया जाता है। इसलिए कहाँ यथार्थ कथन है और कहाँ उपचरित कथन है इसे समझकर ही वस्तुको स्वीकार करना चाहिए ।
इसो प्रकार शास्त्रोंमें कहीं तो उपादानको प्रधानतासे सब कार्य अपने