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। षटकारकमीमांसा
२०९ कालिक मात्माको एक कालमें आकलन कर रहा है. तथा जो झुलते हुए हारमें मुकाफलोंके समान चिद्विवोको चेलनमें समाविष्ट करके, और विशेषण-विशेष्वभावकी वासनाके लुप्त हो जानेसे हारमें सफेदीके समान चेतनमें ही चैतन्यको अन्तर्हित करके केवल मालाके समान केवल आत्माको जान रहा है तथा जो कर्ता-कर्मके ( कर्ता-कर्म आदि षट्कारकके । विभागके उत्तरोत्तर समयमें क्षयको प्राप्त होनेसे अर्थात उत्तरोत्तर समयमें कर्ता-कर्म आदिके विकल्पका अभाव होते जानेसे निष्क्रिय चिन्मात्रभाबको प्राप्त हुआ है ऐसे जिस जीवका मणिके समान निर्मल प्रकाश अकम्परूपसे प्रवृत्त हुआ है ( अनुभवमें आया है ) उसके मोहतम निराश्रय होनेसे अवश्य ही प्रलयको प्राप्त होता है। गुरुके इस प्रकार समझाने पर शिष्य कहता है यदि ऐसा है तो मैंने मोहकी सेना को जीतनेका उपाय प्राप्त कर लिया है।
पुराने कालमें सेनाके प्रधानके विजित हो जानेपर सेना पर विजय प्राप्त करना आसान हो जाता था। प्रकृतमें इसी तथ्यका निर्देश किया गया है। मोह अर्थात् अज्ञानभाव सब दोषोंमें प्रमुख है। उसका पात होनेपर यह जोव आत्मस्वरूपको सम्यक प्रकारसे अनुभवनेवाला सम्यग्दृष्टि हो जाता है। उसके बाद राग-द्वष पर विजय पाना सुकर है। यह तथ्य इस गाथा और उसको तत्त्वदीपिका टीका द्वारा स्पष्ट किया गया है।
पहले इसमें प्रत्येक आत्माको अरहंतके आरमासे तुलना की गई है। और इस प्रकार द्रव्य-गुण-पर्यायपनेसे सब आत्माओंमें समानताकी स्थापना कर अरहंतके दर्शनसे अपने आस्माको जाननेका उपाय बतलाया गया है। इसके बाद अपने आत्मामें एकाग्र होनेके लिए गुण-पर्यायोंके विकल्पको छोड़कर केवल स्वभावभूत निर्विकल्प मात्माको लक्ष्यमें लेनेका निर्देश किया गया है। ऐसा करनेसे कर्ता-कर्म आदिका विकल्प छूटकर स्वयं ही यह जीव अपने स्वरूपमें निमग्न होकर सम्यग्दृष्टि हो जाता है। एक गुणस्थानसे ऊपरके गुणस्थान पर चढनेके लिए आगम एकमात्र इसी मार्गको स्वीकार करता है। अपने अनुभवसे भी इसीका समर्थन होता है।
यह गाथा मात्र सम्यग्दर्शनके प्राप्त करनेके उपायका निर्देश करती है यह इसीसे स्पष्ट है कि इससे अगली सूत्रगाथा द्वारा आत्मतत्त्वके सम्यक् प्रकारसे उपलब्ध होनेके बाद राग-देषको जीतनेकी प्रेरणा की गई है।