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षट्कारकमीमांसा
२०७ और बात है पर यह उसकी संज्ञा हुई, जिसका नाम निक्षेपमें ही अन्तर्भाव होता है।
शंका-सम्यग्दृष्टिके मुखसे सुना हुआ उपदेश ही सम्यग्दर्शनका निमित्त हो सकता है यह आग्रह क्यों ?
समाधान-श्री धवलाजी पुस्तक ६ में एक शंका-समाधान आया है जिससे हम जानते हैं कि सम्यग्दृष्टि द्वारा दिया गया उपदेश ही सम्यकत्वकी उत्पत्तिका निमित्त है । वह शंका-समाधान इस प्रकार है
कथं तेसिं धम्मसुणण सभवदि, तत्थ रिसीण गमणाभावा ? ण, सम्मादिदिठदेवाण पुब्वभवसंबधीणं धम्मपदुप्पायणे वावदाणं सयलबापाविरहियाणं तत्थ गमणदंसणादो । पृ० ४२२ ।
शंका-प्रथम तीन नरकके नारकियोंके धर्मश्रवण किस प्रकार सम्भव है ? क्योंकि वहाँ ऋषियोका जाना नहीं होता?
समाधान नहीं, क्योंकि जो धर्म उत्पन्न कराने में लगे हुए हैं और सब प्रकारको बाधाओंसे रहित है ऐसे पूर्वभवसम्बन्धी सम्यग्दृष्टि देवोंका वहाँ तीन नरकोमे गमन देखा जाता है। ___इससे हम जानते हैं कि सम्यग्दृष्टिके निमित्तसे मिला हुआ उपदेश ही धर्मके उत्पन्न करनेमे निमित्त होता है । ___शङ्का-जब कि जिस समय कार्य होता है उसी समय दूसरे पदार्थमें निमित्त व्यवहार होना सम्भव है तो क्या उपदेश प्राप्तिके समय ही सम्यग्दर्शन हो जाता है ? ___ समाधान-नही, क्योंकि ऐसे समयमें उपदेश तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिका निमित्त है। पुनः यह जीव अन्तमुहूर्तके भीतर या इसके बाद सम्यग्दर्शनको प्राप्त करता है। इसलिये वास्तवमें तो यह तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिका ही व्यवहार निमित्त है। फिर भी आगममे कार्यमे कारणका उपचार कर धर्मश्रवणको सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिका निमित्त कहा गया है। __ शङ्का-~-यह आपने कैसे जाना कि धर्मोपदेश ग्रहण करनेके समय ही सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं होता?
समाधान-जिस समय किसी व्यक्तिका उपयोग धर्मश्रवणमें लगा हुधा हो उस समय अधःकरण आदि तीन करणोका होना सम्भव नहीं है। उसके बाद तत्काल या कालान्तरमें यदि उसका उपयोग भात्माके सन्मुख हो तो वह सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करता है। इससे हमने नामा