________________
षट्कारकमीमांसा शंका-बाह्य-आभ्यन्तर चारित्रमोहनीयका पूर्ण उपशम या क्षयक्रमशः ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानमें ही पाया जाता है, इसलिए प्रकृतमें उक्त चारित्रका लक्षण उक्त गुणस्थानोंको लक्ष्यमें रखकर कहा गया है ऐसा मानने में आपत्ति ही क्या है ? __समाधान नहीं, क्योंकि जैसे ज्ञानावरणके क्षयोपशममें तारतम्य होनेसे ज्ञानमें तारतम्य स्वीकार किया गया है उसी प्रकार चारित्रमोहनीयके उपशम, क्षय या क्षयोपशममें तारतम्य होनेसे सद्भूत व्यवहारनयसे चारित्रमें भी तारतम्य स्वीकार किया गया है। निश्चयनय अभेद और अनुपचारको ही स्वीकार करता है, इसलिए तत्त्वदृष्टिसे चौथे आदि गुणस्थानोंमें जो भी स्वभाव पर्याय होती है उसका स्वभावसे अभेद होनेके कारण उसमें गुणस्थान मेद लक्षित नहीं होनेसे एक आत्मा ही प्रद्योतित रहता है। चौथे गुणस्थानमें उस स्वभावपर्यायका उदय हो जाता है, क्योंकि वहाँपर सम्यग्दर्शन प्राप्तिके कालमे अन्तर्मुहुर्तकालतक गुणश्रेणि निर्जरा नियमसे होती है। जो स्वरूपरमणरूपचारित्रके होनेपर ही सम्भव है। यह तो चौथे गुणस्थानकी स्थिति है। पाँचवें गणस्थानसे वह अवस्थितरूपसे होने लगती है। निर्विकल्प अवस्थामें तो वह होती ही है सविकल्प अवस्थामे भी होती है। जिसका उदय स्वरूपरमणरूप चारित्रकी प्राप्ति होनेपर ही सम्भव है। जो संसारी जीव चौथे आदि गुणस्थानोंको प्राप्त होता है वह स्वरूपरमणताके कालमें ही उन-उन गुणस्थानोंका अधिकारी होता है। ऊपर चढ़नेका अन्य कोई मार्ग नहीं, क्योंकि किसी भी स्वभाव पर्यायकी प्राप्ति अपने त्रिकाली ज्ञायकस्वभावमें उपयोगके एकाकार होनेपर ही होती है ऐसा एकान्त । नियम है। यही कारण है कि छठवें गुणस्थानको प्राप्ति मात्र सातवें गुणस्थानसे पतन होनेपर ही स्वीकार की गई है।
एक बात और है और वह यह कि जो मिथ्यादृष्टि अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानको प्राप्त करता है उसके अनन्तानुबन्धीका कम-से-कम सदवस्थारूप उपशम अवश्य रहता है। वहाँ पहुँचकर वह उसकी विसंयोजना भी कर सकता है। इससे सिद्ध हुआ कि उसके तत्सम्बन्धी क्रोध, मान, माया और लोभका भी अभाव रहता है। यतः यह अनन्तानबन्धीकषाय मिथ्याचारित्रका अविनाभावी है इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि उसके व्रतादिकी प्राप्तिकी अपेक्षा अविरतिके रहते हुए भी विषयकषायमें रमणास मिथ्याचारित्र नहीं होता। उसमें साभिप्राय ऐसी अविरतिका सर्वथा निषेध है। स्वामित्व बुद्धिके बिना ही उसकी अप्रत्या