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षट्कारकमीमांसा
१८७ भी यदि कोई व्यवहाराभासी जन इसे परमार्थभूत मानता है तो उसकी वह कल्पना परमार्थभूत अर्थका अपलाप करनेवाली होनेसे उस ( व्यवहाराभासी ) के उस विकल्पको पंचाध्यायीकारने नयाभासोंमें परिगणित किया है ऐसा यहाँ समझना चाहिये।
इस प्रकार व्यवहारसे कुम्भकारको घटका कर्ता क्यों कहा जाता है इसका विचार किया। अब इसी दृष्टिसे कर्म कारकका विचार करते हैं
कुम्भकार घट बनानेकी क्रिया कभी भी नहीं कर सकता। वह क्रिया मात्र मिट्टी ही करती है। उसमें भी जो मिट्टी बालु बहुल हो या ककरीली हो वह भी घटरूप परिणमन नहीं कर सकती। कुम्भकार तो मात्र घटको उत्पत्तिके समय स्वयं अपनी हस्तादिको क्रियाके करनेके साथ कुम्भ बनानेका विकल्प ही कर सकता है । इस प्रकार मालूम पड़ता है कि कुम्भकारका अभीप्सित घट बनानेका होने पर भी वह स्वरूपसत्तापनेकी अपेक्षा मिट्टीसे अत्यन्त भिन्न होनेके कारण घट परिणमनरूप मिट्टीकी क्रिया त्रिकालमें नहीं कर सकता। जो अनादिरूढ़ लौकिक व्यवहारवश यह मानता है कि कुम्भकार मिद्रीसे स्वयं अपनी क्रिया द्वारा घट बनाता है उसका ऐसा मानना असद् विकल्प होनेसे आगममें ऐसे विकल्पको असत् व्यवहारमे परिगणना कर बाह्य व्याक्तिवश इसे उपचरित रूपसे स्वीकार किया गया है।
शंका-बालकमें सिंहके समान क्रौर्य-शौर्य आदि गुणोंको देखकर ही उसमे सिंहका उपचार कर यह कहा जाता है कि यह बालक सिंह है। किन्तु जब कि कुम्भकारमें मिट्टीका एक भी गुण दिखलाई नहीं देता ऐसी अवस्था में मिट्टीके घट परिणमनरूप कार्यको कुम्भकारने किया इसे परमार्थ अर्थको सूचित करनेवाला तो माना नहीं जा सकता। उपचरित कथन भी कहा जाय तो कैसे कहा जाय ?
समाधान-यह सच है कि स्वरूपसत्ताकी अपेक्षा कुम्भकारमें मिट्टी का एक भी गुण नहीं पाया जाता और इसलिये घटपरिणमनरूप कार्यका कर्ता कुम्भकारको कहना परमार्थकी बात तो छोड़िये, उपचारसे भी कहना नहीं बनता, वह केवल अनादिरूढ़ लौकिक व्यवहारमात्र है। फिर भी आचार्योने ऐसे व्यवहारको जो उपचरित कहा है सो वह केवल सत्त्व, प्रमेयत्व आदि सादृश्य सामान्यकी अपेक्षा मिट्टीसे कुम्भकारमें अमेद मान कर ही कहा है । यहाँ आदि पदसे कर्तृत्व, कर्मत्व, करणत्व, सम्प्रदानत्व,