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जैनतत्त्वमीमांसा यथोक्तवस्तुस्वभावं जानन् जानी शुद्धस्वभावादेव न प्रच्यवते ततो रागद्वेषमोहादिगावैः स्वयं न परिणमते न परेणापि परिणम्यते, ततष्टंकोत्कीर्णेकशायकस्वभावो ज्ञानी रागद्वेषमोहाविभावानामकतैवेति नियम. ॥२८॥
यथोक्त वस्तुस्वभावको जानता हुआ ज्ञानी अपने शुद्ध स्वभावसे ही च्युत नहीं होता, इसलिए वह राग, द्वेष, मोहादि भावरूप न तो स्वयं परिणमता है और न दूसरेके द्वारा ही परिणमाया जाता है, इसलिए टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावरूप ज्ञानी राग, द्वेष, मोह आदि परभावोंका अकर्ता ही है ऐसा नियम है ।। २८० ॥ इसी बातको समयप्राभृतकलशमें इन शब्दोंमें व्यक्त किया है
ज्ञानिनो ज्ञाननिर्वत्ता सर्वे भावा भवन्ति हि ।
सर्वेऽप्यज्ञाननिर्वृत्ता भवन्न्यज्ञानिनस्तु ते ॥६६।। ज्ञानीके सभी भाव ज्ञानसे उत्पन्न होते हैं और अज्ञानीके सभी भाव अज्ञानसे उत्पन्न होते हैं ॥६६॥ ___ इसी बातको अन्यत्र उन्होंने दृढताके साथ इन शब्दोंमें व्यक्त किया है
आत्मा ज्ञान स्वयं ज्ञान ज्ञानादन्यत्करोति किम् ।
परभावस्थ कर्तारमा मोहोऽयं व्यवहारिणाम् ॥६२।। आत्मा ज्ञानस्वरूप है, वह स्वयं ज्ञान ही है, अत. ज्ञानसे अन्य वह किसे करे ? अर्थात ज्ञानसे अन्य किसीको नहीं करता। परभावोंका अर्थात् रागादिभावोका कर्ता आत्मा है ऐसा मानना तथा कहना व्यवहारी जनोंका मोह है ॥६॥
किन्तु जो श्रमणाभास इस तथ्यको न समझकर नारक आदि पर्यायोंका स्वरूपसे कर्ता आत्माको मानते हैं उन्हे लौकिकजनोंके दृष्टान्त द्वारा आचार्य कुन्दकुन्द किन शब्दों में सम्बोधित करते हैं यह उन्होंके शब्दोंमें पढ़िए
लोयस्म कुणइ विण्हू सुर-णारय-तिरिय-माणुसे सत्ते । समणाण पि य अप्पा जड कुम्वइ छबिहे काए ॥३२१।। लोय-समणाणभेयं सिद्धतं जइ ण दोसइ विसेसो । लोयस्य कुणइ विण्हू समणाण वि अप्पओ कुणइ ।।३२२।। एब " को वि मोक्खो दीसइ लोय-समणाण दोष्ह पि । णिच्च कुन्वताणं सदेवमणुयासुरे लोए ॥३२३।।