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जनतस्वमीमांसा (२) जीवोंकी संसाररूप विभावपर्याय स्व-परनिमित्तक होती है। इसका अर्थ है कि जीवके वह पर्याय परमें एकत्वबुद्धि या इष्टानिष्ट बुद्धि करनेसे होतो है, इसलिए तो उसे परनिमित्तक कहा । तथा जीव ही स्वयं अपने निश्चय उपादानके अनुसार उसे उत्पन्न करता है, परपदार्थ या कर्म उसे उत्पन्न नही करते, इसीलिए उसे स्वनिमित्तक कहा। यही कारण है कि आगममें विभावपर्यायकी उत्पत्ति स्व-परसापेक्ष स्वीकार की गई है।
इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि परमार्थसे प्रत्येक द्रव्य स्वयं कर्ता होकर प्रति समय अपना कार्य करता है। वह अपना कार्य करनेमें कारकान्तरकी अपेक्षा नहीं करता। इसके लिए पंचास्तिकाय गाथा ६२ दृष्टव्य है। उसमें कर्म और जीव कारकान्तर की अपेक्षा किये विना प्रतिसमय किस प्रकार षटकारक भावको प्राप्त होते हैं यह स्पष्ट किया गया है। इसी प्रकार सभी पदार्थोक विषयमें जानना चाहिए। १० उपसंहार
उक्त समग्न कथनका तात्पर्य यह है कि जो जिनोपदिष्ट आगममें प्रतिपादित द्रव्य, गुण और पर्यायस्वरूप इस लोकको अकृत्रिम और स्वभावसे निष्पन्न मानता है। अन्य किसीका कार्य नही मानता, वास्तवमें उसीने जिनागमके आशयको हृदयसे समझा है ऐसा कहा जा सकता है । कारणद्रव्य परमाणु आदि अन्य किसीके कार्य नहीं है इस तथ्यको तो नैयायिकदर्शन भी स्वीकार करता है। मुख्य विवाद तो जो लोकमें उनके विविध प्रकारके कार्य दिखलाई देते है उनके विषयमें हैं। नैयायिकदर्शनके अनुसार अदृष्ट सापेक्ष ईश्वर कारक साकल्यको जानकर अपनी इच्छा और प्रयत्नसे कार्योको उत्पन्न करता है। किन्तु जैनदर्शन इसे स्वीकार नही करता। इसका यदि कोई यह अर्थ करे कि जैनदर्शनने कर्तारूपसे ईश्वरको अस्वीकार किया है, पर निमित्तोको नहीं, तो उसका उक्त कथनसे ऐसा तात्पर्य फलित करना ठीक नहीं है, क्योंकि कार्यकी उत्पत्ति में अन्य निमित्तोंको तो नैयायिकदर्शन भी ईश्वरके समान कर्तारूपसे स्वीकार नही करता। कार्योत्पत्तिमे वे निमित्त अवश्य होते हैं इसे तो वह मानता है। परन्तु कर्ता होनेके लिए इतना मानना ही पर्याप्त नहीं
१ लोओ अक्किट्टमो खलु अणाइणि हणो सहावणिप्पण्णो । जीवाजीहि भुडो णिच्चो तालरुक्खसंठाणो ॥२२॥
मूलाचार द्वादशानुप्रेक्षाधिकार