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कर्ममीमांसा
१७३ वह परसमय है। परसमय कहो या मिथ्यादृष्टि कहो दोनोंका अर्थ
शंका-पहले मनुष्यादि पर्याय निरत जीवको परसमय कहा और यहाँ आगमानुसार जिन वचनको स्वीकार कर जीवादि द्रव्योंका निर्णय नहीं करनेवाले जीवको परसमय कहा सो इसका कारण क्या?
समाधान-वर्तमान कालमे तत्वनिर्णय करनेके लिए आगम ही हमारे चक्ष हैं, क्योंकि जिनवचन और आगममें कोई अन्तर नहीं है। पण्डितप्रवर आशाधर जो अपने सागार धर्मामृतमें कहते हैं
न किचिदन्तर प्राहुराप्ता हि श्रुत-देवयोः । जिनदेवने देव और आगममें कुछ भी अन्तर नहीं कहा।
आगमसे जिनवाणीका निर्णय होता है, अतएव आगममें जिस रूपमें तत्त्वकी प्ररूपणा की गई है, जिनवाणी उससे भिन्न नहीं है। जो आसन्न भव्य जीव इस प्रकार निर्णय करके जीवादि द्रव्योंके स्वरूपको जान कर ऐसा निर्णय करता है कि मैं ज्ञान-दर्शन स्वभाव जीव है, अन्य नहीं और ] ऐसे निर्णय पूर्वक अपने स्वभावभूत ज्ञान-दर्शन-चारित्रमें लीन होता है। वह स्वसमय है। अन्य सबमें एकत्व बदिपर्वक इष्टनिष्ट बलि करनेवाला जीव परसमय है। इस प्रकार पूर्वमें जो कुछ कहा गया उसे ही प्रकृतमें दूसरे शब्दोंमें स्पष्ट किया गया है। पूर्वोक्त कथनसे इस कथनमें कोई अन्तर नहीं है । इतना अवश्य है कि यह जीव जो कुछ भी निर्णय करे वह सब आगमानुसार ही होना चाहिये यह यहाँ इस सूत्र गाथा द्वारा विशेषरूपसे समझाया गया है । ___ यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि अन्तरात्मा और बहिरात्मा क्रमसे स्बसमय और परसमयके ही पर्यायवाची नाम हैं। इनकी व्याख्या करते हुए नियमसारमें कहा है -
अन्तर-बाहिरजप्पे जो बट्टइ सो हवेइ बहिरप्पा ।
जप्पेसु जो ण वट्टइ सो उच्चह अन्तरगप्पा ॥१५०।। जो पुण्यकर्मकी कांक्षासे स्वाध्याय, प्रत्याख्यान और स्तवन आदि बाह्य जल्पमें तथा जशन, शयन गमन आदिकी माप अन्तरंग जल्पमें वर्तता है वह बहिरासा है। और सब प्रकारके जल्पोंसे निवृत्त होकर अपने ज्ञान-दर्शन स्वभावमें स्थित है वह अन्तरात्मा है ।।.५०॥
नियमसारमें इसी विषयको स्पष्ट करते हुए पुनः कहा है