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. कर्तृ-कर्ममीमांसा अज्ञानभाव और राग-द्वेषके साथ होनेके कारण इन एकेन्द्रियादि पर्यायोंको व्याप्ति कर्मके साथ होनेकी अपेक्षा प्रकृतमें इन्हें नामकर्म करणक कहा गया है यह तो ठीक है। पर इन्हे पुद्गलपरिणाममय कहना तो ठीक नहीं, क्योंकि ये जीवोंकी ही अवस्था विशेष हैं।
समाधान-बात यह है कि अज्ञानभाव रहते हए इस जीवकी पर-1 पदार्थों में एकत्वबुद्धि बनी रहती है और राग-द्वेषके कारण उनमें इष्टानिष्ट बुद्धि करता रहता है। ऐसी अवस्थामें उसे जान नसाव आत्माका वेदन न होकर अपनेपनसे पर-पदार्थोंका ही वेदन होता रहता। है। इसीसे इन एकेन्द्रियादि जीव-वशेषोंको प्रकृतमें पुद्गलपरिणाममय कहा है। देखो समयसार गाथा ५० से ५५ तक तथा उनकी आत्मख्याति टीका। ९. स्वसमय-परसमयका स्वरूप निर्देश
उक्त तथ्यको स्पष्ट करनेकी दृष्टिसे स्वसमय और परसमय किसे कहा जाय इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्ददेव समयसारमें कहते हैं
जीवो चरित्त-दसण-णाणविउ तं हि ससमय जाण ।
पुग्गलकम्मपदेसट्ठियं च तं जाण परसमय ॥२॥ जो जीव चारित्र, दर्शन और ज्ञानमें स्थित है निश्चयसे उसे स्वसमय जानो और जो जीव पुद्गल कर्मके प्रदेशोमें स्थित हैं उसे परसमय जानो।
यों तो छहों द्रव्योंकी समय संज्ञा है. क्योंकि सभी द्रव्य अपने-अपने गुण-पर्यायोंको प्राप्त होते है। उसमें भी जीवको समय इसलिये भी कहते है, क्योंकि वह समस्त पदार्थोके स्वभावको अवभासन करने में समर्थ ऐसी ज्ञान-दर्शन शक्तिसे सम्पन्न है। वही जब मेदज्ञान ज्योतिसे सम्पन्न होता हुआ अपने दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निज स्वभावमें स्थित होता है, अर्थात् अन्याश्रित सभी प्रकारके विकल्पोसे मुक्त होकर अपने ज्ञायक स्वरूप आत्मामें लोनता प्राप्त करता है तब वह स्वसमय कहलाता है। किन्तु जब वह अनादि मोहके उदयानुसार प्रवृत्तिके अधीन होकर अपने दर्शन-ज्ञानरूप निज स्वभावसे च्युत होता हुआ पर द्रव्योंको निमित्त कर उत्पन्न हुए मोह, राग और द्वेषादिरूप भावोंमें एकता कर प्रवृत्त होता है तब वह पुद्गलकर्म प्रदेशोंमें स्थित हुआ एक ही समयमें पर द्रव्योंको अपने साथ एकरूपसे जानता और रामादिरूप परणमित होता हुआ पर समय कहलाता है।