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कत कर्ममीमांसा . १५७ संसा है और उसी पर्यायके व्ययके साब अथवा नई पर्यायकी उत्पत्तिके समय उसकी कर्ता संज्ञा है, इसलिए इनमें एक द्रव्यपना होनेपर भी वे दोनों भिन्न-भिन्न हैं। उपादन-उपादेयभाव उपचारित सदभूत व्यवहारनय से स्वीकार किया गया है और कर्तृ-कर्मभाव अनुपचरित सदभूत व्यबहारनयसे स्वीकार किया गया है। इनके पृथक्-पृथक कहनेका प्रयोजन भी पृथक्-पृथक् है।
शंका-समयसार परमागममें कर्तृ-कर्मभावकी अपेक्षा ही कथन किया गया है । उपादान-उपादेयभावसे कथन करने में क्या आपत्ति रही?
समाधान-समयसार परमागममें निश्चयनयकी मुख्यत्तासे कथन करना मुख्य प्रयोजन रहा है, क्योंकि इस अपेक्षा कर्ता हो, कर्म हो या क्रिया कुछ भी हो, वस्तुपनेकी अपेक्षा वे एक हैं। कर्ता भी वस्तु है, कर्म
भी वस्तु है और क्रिया भी वस्तु है। प्रत्येक समय वस्तु अखण्ड और स्वयंमें परिपूर्ण है। मात्र समझानेके अभिप्रायवश उसका कथन भेदसे किया जाता है। किन्तु उपादान-उपादेयभावमें यह दृष्टि मुख्य नहीं है, क्योंकि उसमें समय भेदसे वर्तनेवाले द्रव्य समय भेदकी अपेक्षा भिन्नभिन्न है । अव्यवहित उत्तर समयमें कौन-सी पर्याय होगी यह नियम करना ही उसका प्रयोजन है ।
शंका-जो द्रव्य पिछले समयमें है वही वर्तमान समयमें है ऐसे प्रत्यभिज्ञानके होनेसे उन्हें एक मानने में क्या आपत्ति है ?
समाधानद्रव्यदृष्टिसे ही ऐसा मानना सम्भव है, पर्याय दृष्टिसे नहीं, क्योंकि प्रति समयकी पर्यायोंकी अपेक्षा भिन्न-भिन्न समयवर्ती द्रव्य भिन्न-भिन्न हैं। उन्हे एक स्वीकार करनेके लिए एक समयवर्ती द्रव्यका दूसरे समयवर्ती द्रव्यपर आरोप करके ही ऐसा कहा जा सकता है। इसलिए यह सापेक्ष कथन हो जाता है। जब कि कर्त-कर्मभावमें केवल मेनसे ऊपत करनेकी मुख्याना है। यही कारण है कि इसमें उपादानउपादेयभावकी अपेक्षा कथन न करके कर्तृ-कर्मभावकी अपेक्षा कथन किया गया है।
शंका-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक आदिमें उपादानको निश्चय विशेषणसे विशिष्ट किया गया है। और प्रकृतमें आप उपादान-उपादेयभावको उपचरित सद्भूत व्यवहारनयका कथन बतला रहे हैं। पिछले अध्यायमें आपने भी उसी सरणिको अपनाया है । सो क्यों?
समाधान-वहाँ 'आत्माश्रितो निश्चयनमः' इस दृष्टिको ध्यानमें रख