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उभयनिमित-मीमांसा इस प्रकार इन उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि उपादानगत योग्यताके कार्यभवनरूप व्यापारके सम्मुख होनेपर ही वह कार्य होता है, अन्यथा नहीं होता। ऐसे परिणमनकी क्षमता प्रत्येक द्रव्यमें होती है। जीवके इस परिणमन करनेरूप व्यापारको पुरुषार्थ कहते हैं। ___ यदि तत्त्वार्थवातिकके उक्त उल्लेखपर बारीकीसे ध्यान दिया जाता है तो उससे यह भी विदित हो जाता है कि घट निष्पत्तिके अनुकूल कुम्हारका जो व्यापार होता है वह भी निमित्तमात्र है, वास्तवमें कर्ता निमित्त नहीं ! उनके 'निमित्तमात्र है' ऐसा कहनेका भी यही तात्पर्य है।
सब कार्य स्वकालमें ही होते हैं इसे भी भट्टाकलंकदेवने तत्त्वातिक (अ० १, सूत्र० ३) में स्वीकार किया है। वह प्रकरण निसर्गज और अधिगमज सम्यग्दर्शनका है। इसी प्रसंगको लेकर उन्होंने सर्वप्रथम यह शंका उपस्थित की है
भव्यस्य कालेन नि श्रेयसोपपत्तेः अधिगमसम्यक्त्वाभावः । ७ । यदि अवधूतमोक्षकालात् प्रागधिगमसम्यक्त्वबलात् मोक्षः स्यात् स्यादधिगमसम्यग्दर्शनस्य साफल्यम् । न चादोऽस्ति । अतः कालेन योऽस्य मोक्षोऽसो निसर्गजसम्यक्त्वादेव सिद्ध इति । ___ इस वार्तिक और उसको टीकामें कहा गया है कि यदि नियत मोक्षकालके पूर्व अधिगमसम्यक्त्वके बलसे मोक्ष होवे तो अधिगमसम्यक्त्व सफल होवे। परन्तु ऐसा नहीं है, इसलिए स्वकालके आश्रयसे जो इस भव्य जीवको मोक्षकी प्राप्ति होती है वह निसर्गज सम्यक्त्वसे ही सिद्ध है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि उक्त कथन द्वारा भट्टाकलंकदेवने भी इस तथ्यको स्वीकार किया है कि प्रत्येक भव्य जीवको उसकी मोक्ष प्राप्तिका स्वकाल आनेपर मुक्तिलाभ अवश्य होता है। इससे सिद्ध है कि लोकमें जितने भी कार्य होते हैं वे अपने कालके प्राप्त होनेपर ही होते हैं, आगे पीछे नहीं होते। । यहाँ पर यह शंका की जा सकती है कि जब वहीं पर भट्टाकलंकदेव ने कालनियमका निषेध कर दिया है तब उनके पूर्व वचनको कालनियम के समर्थनमें क्यों उपस्थित किया जाता है। कालनियमका निषेधपरक उनका वह बचन इस प्रकार है
कालानियमाच्च निर्णरायाः । ९ । यतो न भव्याना कृत्स्नकर्मनिर्जरापूर्वकमोक्षकालस्य नियमोऽस्ति । केचिद् भव्याः संख्येन कालेन सेत्स्यन्ति, केचिदसंस्थेन, केचिदन्तेन, अपरे अनन्तानन्तेनापि म सेत्स्यन्तीति, ततश्च न युक्तं 'भब्यस्य कालेन निःश्रेयसोपपत्तेः' इति ।