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जैनतत्वमीमांसा स्वीकार की गयी है उसमें द्रव्यको स्वशक्तिके साथ उपादानका प्रमुख स्थान है। उसके अभावमें अन्य निमित्तोंकी कथा करना ही व्यर्थ है। स्वामी समन्तभद्रने आप्तमीमांसामें जब यह प्रतिपादन किया कि विविध प्रकारका कामादि कार्यरूप भावसंसार कर्मबन्धके अनुरूप होता है और वह कर्मबन्ध अपने कामादि बाह्य हेतुओंके निमित्तसे होता है तब उनके सामने यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि ऐसा मानने पर तो जीवके ससारका कभी भी अन्त नहीं होगा, क्योंकि कर्मबन्ध होनेके कारण यह जीव भावसंसारकी सृष्टि करता रहेगा और भावसंसारकी सृष्टि होनेसे निरन्तर कर्मबन्ध होता रहेगा। फिर इस परम्पराका अन्त कैसे होगा? आचार्य महाराजने स्वयं उठे हुए अपने इस प्रश्नके महत्त्वको अनुभव किया और उसके उतरस्वरूप उन्हे कहना पड़ा-'जीवास्ते शुखध द्वित ।' अर्थात् वे जीव शुद्धि और अशुद्धि नामक दो शक्तियोंसे सम्बद्ध हैं। परन्तु इतना कहनेसे उक्त आपेक्षको ध्यानमें रखकर किये गये समाधान पर पूरा प्रकाश नहीं पड़ता, इसलिए वे इन शक्तियोंके आश्रयसे स्पष्टीकरण करते हुए पुनः कहते हैं
शुद्धघशुद्धी पुनः शक्ती ते पाक्यापादयशक्तिवत् ।
साधनादी तयोव्यक्ती स्वभावोऽतर्कगोचर ॥१००।। पाक्यशक्ति और अपाक्यशक्तिके समान शुद्धि और अशुद्धि नामवाली दो शक्तियाँ हैं तथा उनकी व्यक्ति सादि और अनादि है । उनका स्वभाव हो ऐसा है जो तर्कका विषय नहीं है ॥१०॥ ___ यहाँ पर जो ये दो प्रकारकी शक्तियाँ कही गयी हैं उन द्वारा प्रकारान्तरसे उपादान शक्तिका ही प्रतिपादन कर दिया गया है। जीवों में ये दोनों प्रकारकी शक्तियाँ होती हैं। उनमेंसे अशुद्धि नामक शक्तिकी व्यक्ति तो अनादि कालसे प्रति समय होती आ रही है जिसके आश्रयसे नाना प्रकारके पुद्गल कर्मोका बन्ध होकर कामादिरूप भावसंसारकी सृष्टि होती है। जो अभव्य जीव हैं उनके इस शक्तिकी व्यक्ति अनादिअनन्त है और जो भव्य जीव हैं उनके इस शक्तिको ब्यक्ति अनादि होकर भी सान्त है। किन्तु जब इस जीवके शुद्धि शक्तिकी व्यक्तिका स्वकाल आता है तब यह जीव अपने स्वभाव सन्मुख होकर पुरुषार्थ द्वारा उसकी व्यक्ति करता है, इसलिए शुद्धि शक्तिकी व्यक्ति सादि है। यहाँ पर जो अशुद्धि शक्तिको व्यक्तिको अनादि कहा गया है सो वह कथन सन्तानपनेकी अपेक्षासे ही जानना चाहिए, पर्यायाथिकनयकी