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जैनतत्व-मीमांसा लिंगसे मुक्तिको स्वीकार कर लिया। लगभग ठीक यही स्थिति इन व्यवहारैकान्तवादियों की है। इन्हे मात्र सम्यक् नियतिको भी एकान्त कह कर उसका खण्डन करना है। इसके लिए उन्होंने यह मार्ग चुना कि जितनी स्वभाव पर्यायें हैं वे तो क्रमसे अपने-अपने समयमें ही होती हैं। पर विभाव पर्यायोंके विषयमें यह नहीं कहा जा सकता। कोन पर्याय कब होगी इसका कोई नियम नहीं किया जा सकता। ९ उक्त एकान्त मतको पुन समीक्षा
किन्तु उनका यह कथन केसे आगम विरुद्ध है इसकी हम संक्षेपमें कुछ आगम प्रमाण देकर पुनः समीक्षा करेंगे। स्वामी समन्तभद्रने सम्यक् देवकी परीक्षा प्रधान अपने आप्तमीमांसा ग्रन्थमें ससारी जीवोंके प्रत्येक कार्यको अपेक्षा देव और पुरुषार्थके युगपत् योगको गौण मुख्य भावसे कैसे स्वीकार किया है इस पर दृष्टिपात कीजिए
अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्ट स्वदैवतः ।
बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्ट स्वपौरुषात् ।।९१॥ ___ अबुद्धिपूर्वक अर्थकी प्राप्तिकी विवक्षामें प्रत्येक इष्ट और अनिष्ट अर्थका सम्पादन देवके बलसे होता है तथा बुद्धिपूर्वक अर्थकी प्राप्तिको विवामें इष्ट और अनिष्ट प्रत्यक अर्थ पुरुषार्थक बलसे प्राप्त होता है ।।९॥ - इसकी टीका करते हुए आचार्य अकलंकदेव तथा विद्यानन्द लिखते
ततोऽतकितोपस्थितमनुकूल प्रतिकूलं वा दैवकृतम् बुद्धिपूर्वापेक्षापायात्, तत्र पुरुषकारस्याप्रधानत्वात् देवस्य प्राधान्यात् । तद्विपरीत पौरुषापादित, बुद्धिपूर्वाव्यपेक्षापायात्, तत्र देवस्य गुणत्वात् पौरुषस्य प्रधानत्वात् ।। ___ इसलिये विना कल्पना या विचारके अनुकूल या प्रतिकूल जो वस्तु प्राप्त होती है उसकी प्राप्ति देवसे होती है, क्योंकि बुद्धिपूर्वक वस्तु प्राप्तिको अपेक्षा न होने से वहाँ पुरुषार्थ गौण है और दैव मुख्य है। उससे विपरीत अनुकल या प्रतिकूल वस्तुकी प्राप्ति पुरुषार्थसे होती है. क्योंकि बुद्धि पूर्वक वस्तुकी प्राप्तिको विवक्षाका अभाव नहीं होनेसे वहाँ देव गौण है और पुरुषार्थ मुख्य है।
यहाँ दैव और पुरुषार्थके स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए आचार्य भट्टाकलकदेव लिखते हैं
योग्यता कर्म पूर्व वा दैवमुभयमदृष्टम् । पौरुषं पुनरिहचेष्टितं दृष्टम् ।