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जैनतस्व-मीमांसा नानापनेको प्राप्त हो जाते हैं इसका अर्थ है कि रागादि भावों और आत्मामें जो एकपनेकी बुद्धि थी वह दूर हो जाती है ।
आत्माका लक्षण शायकस्वरूप आत्माको लक्ष्य कर प्रवृत्त हुई सहभावी और क्रमभावी पर्यायोंसे अन्तर्लीनपनेको प्राप्त हुआ चैतन्य भाव है और बन्धका लक्षण आत्मद्रव्यमें असाधारणरूपसे प्राप्त हुए रागादि भाव है। इस प्रकार ये दोनों लक्षण भेदसे अत्यन्त भिन्न-भिन्न हैं। इनके मध्य अत्यन्त सूक्ष्म सन्धि है। उस सन्धिको समझकर जो उसमें अपनी प्रशाछनीको अनन्त परुषार्थसे पटक कर अपने चैतन्यस्वरूप आत्मासे रागादि भावोंको जुदा करता है वह नियमसे कर्मोसे विरक्त होकर परमार्थका भागी होता है। संसार परिपाटीसे छूटनेका एकमात्र यही उपाय है। इसी तथ्यके समर्पक आत्मख्यातिके इन शब्दों पर दृष्टिपात कीजिए
......"सहजविजृम्भमाणचिच्छक्तितया यथा यथा विज्ञानधनस्वभावो भवति तथा तथास्रवेभ्यः निवर्तते । यथा यथास्रवेभ्यश्च निवर्तते तथा तथा विज्ञानधनस्वभावो भवतीति । सा० गा० ७४ ।
सहज बढी हुई चेतनारूप शक्तिपनेसे जैसे-जैसे (आत्मा) विज्ञानघन स्वभाव होता है वैसे-वैसे (वह) रागादिरूप आस्रवोंसे जुदा होता है। जैसे-जैसे आस्रवोंसे जुदा होता है वैसे-वैसे विज्ञानधन स्वभाव होता है।
प्रवचनसार गाथा ४५ की तात्पर्य वृत्ति टीकाका यह वचन भी इसी अर्थको व्यक्त करता है___ द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहेन न परिणमति तदा बन्धो न भवति ।
द्रव्य मोहके उदय रहने पर भी यदि आत्मा शुद्धमात्मा (त्रिकाली ज्ञायकस्वभाव आत्मा) की भावनाके बलसे भावमोहरूपसे परिणमन नहीं करता है तब बन्ध नहीं होता है।
सातवें गुणस्थान तक क्षयोपशम सम्यग्दर्शनके कालमें भी यथासम्भव सविकल्प और निर्विकल्प दोनों अवस्थाओंमें मिथ्यादृष्टिके होनेवाले कर्मोका बन्ध नहीं होता। यदि कहा जाय कि यहाँ मिथ्यादर्शन कर्मका उदय नहीं है सो यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि सम्यक् प्रकृति भी मिथ्यादर्शन कर्मका ही अंश है। इतना अवश्य है कि उसमें आत्माके निश्चय सम्यग्दर्शनरूप स्वभावपर्यायके नष्ट होने में बाह्य निमित्तरूप होनेको क्षमता नहीं है। यही कारण है कि उस समय शुद्धात्माकी