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जैनसत्त्वमीमांसा __ बौद्धदर्शन अनात्मवादी दर्शन होनेके साथ वह क्षणिणवाद पर आधृत है। वह अन्वयी द्रव्यको स्वीकार नहीं करता। फिर भी ज्ञानकी उत्पत्तिके समनन्तर प्रत्यय, अधिपति प्रत्यय, आलम्बन प्रत्यय और सहकारी प्रत्यय ये चार कारण स्वीकार करनेके साथ उसने अन्य कार्यों के हेतु (मुख्य हेतु) और प्रत्यय (गौण) ये दो कारण स्वीकार किये है। यह असत्कार्यवादी दर्शन है फिर भी समनन्तर प्रत्ययके आधारपर यह उपादान-उपादेय भावको स्वीकार करता है।
अव्यवहित पूर्ववर्ती ज्ञानक्षण समनन्तर प्रत्यय है, इन्द्रियों अधिपति प्रत्यय है, विषय आलम्बन प्रत्यय हैं तथा प्रकाश आदि अन्य सब कारण सहकारी प्रत्यय है। प्रत्येक समयके ज्ञानकी उत्पत्तिके ये चार कारण हैं। __ अन्य कार्यो की उत्पत्तिके दो कारण होते है। उनमेसे बीज आदिको हेतु कहते है और प्रत्येक समयके कार्योंकी उत्पत्तिके भूमि आदि अन्य कारणोंको प्रत्यय कहते है। किसीकी अपेक्षा करके ही कार्यकी उत्पत्ति होती है, इसलिए मूलतः यह सापेक्षवादी दर्शन है। इसलिए इसका नाम प्रतीत्य समुत्पाद भीहै । ___ सांख्य सत्यकार्यवादी दर्शन है । यह कारणमे कार्योंकी सर्वथा सत्ता स्वीकार कर उनका आविर्भाव तिरोभाव मानता है। उसका कहना है कि प्रत्येक कार्यके लिये पृथक्-पृथक् उपादानका ग्रहण होता है, सबसे सब कार्योकी उत्पत्ति नही देखी जाती। आकाश कुसुम आदि असत्से कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती, शक्यसे ही शक्य कार्यकी उत्पत्ति होती है
और प्रत्येक कार्यका कारण अवश्य होता है। इससे विदित होता है कि नियत कारणसे ही नियत कार्यकी उत्पत्ति होती है। इस दर्शन ने आविर्भाव और तिरोभाव मानकर भी उपादानसे भिन्न कारणोंपर जरा भी बल नहीं दिया है। इसकी मान्यता है कि मूलमें प्रकृति और पुरुष दो ही तत्त्व है जो सर्वथा नित्य हैं। इसके बाद भी वह आविर्भाव और तिरोभावके आधारपर कार्य कारण भावको स्वीकार करता है । उसके मतसे सब कार्य जैसे हम देखते है उसी रूपमें पहलेसे ही विद्यमान है। मात्र वे अपने-अपने कालमें उजागर हो जाते हैं और अपने-अपने कालमें ओझल हो जाते हैं। १. चत्वारः प्रत्यया. हेतुः आलम्बनमनन्तरम् ।
तथैवाधिपतेयं च प्रत्ययो नास्ति पञ्चमः ।। -माध्यमिककारिका १२ । · २. अस्मिन् सति इदं भवति । हेतृप्रत्ययसापेक्षो भावनामुत्पादः प्रतीत्यसमु
त्पादः ।