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जैनतस्वमीमांसा रह गई थी और वे महाशय अपने लेखन द्वारा उस ओर मेरा ध्यान आकर्षित करते तो मैं नम्रतासे उनके सामने सिर झका लेता। किन्तु ऐसा न कर उन्होंने जनतत्त्वमीमांसाकी आलोचनाके नाम पर जो जैनदर्शनके मूल पर ही कुठाराघात करना प्रारम्भ कर दिया है उससे मेरा चित्त उनके प्रति करुणासे भर उठता है। मैं समझ ही नहीं पा रहा हैं कि सम्यक नियतिके विरोधमे ये महाशय और क्या करने जा रहे हैं? क्या व्यवहार पक्षके समर्थनका यही एक मार्ग उनके सामने शेष रहा है ? उनकी दृष्टि में जिससे निश्चय ( अध्यात्म ) पक्षका खण्डन न हो और तदनुकूल व्यवहार पक्षका समर्थन हो जाय ऐसा मार्ग शेष नहीं है जो वे तत्त्वकी विडम्बना कर असत् व्यवहार पक्षके समर्थनमे लगे हुए हैं।
हम यह अच्छी तरहसे जानते है कि जैनतत्त्वमीमासाका विरोध इसलिए नहीं किया जा रहा है कि उसमें जो तत्त्वप्ररूपणा की गई है उसमे किमो प्रकारकी खोट है या जैनतत्त्वमीमांसाकी रचना जैनतत्त्वके विरुद्ध की गई है। (उनके इस विरोधका कारण चरणानुयोगके विपरीत वर्तमानमें प्रचलित बाह्य क्रियाकाण्डको जैनतत्त्वमीमासासे समर्थन नहीं मिलना ही है।
हमें देखना यह चाहिए कि सर्वप्रथम अध्यात्मके विरोधमें वर्तमानमे प्रचलित किस क्रियाकाण्डके हामी विद्वान् थे। वास्तवमे उन्हे तत्त्वप्ररूपणाकी समीचीनता और असमीचीनतासे अणुमात्र भी प्रयोजन नही है, उन्हे तो वर्तमानमे प्रचलित विवक्षित क्रियाकाण्डको सुरक्षा चाहिये है । इसका प्रमाण यह है कि उन्होने अपने इस उद्देश्यकी पूर्तिका मुख्य साधन आम जनताको बनाया है। विद्वानो तक इस चर्चाको सीमित नही रहने दिया है। वे जब अमुक सम्प्रदायके मन्दिरोंमें जाते हैं तो उस ढंगसे प्रवचन करते हैं और जब दूसरे सम्प्रदायके मन्दिरोंमे जाते हैं तो उस ढगसे प्रवचन करते है। यही क्या प्रवचनको पुरानी परम्परा है । क्या वीतराग अरहन्तकी वाणोमें इन परम्पराओंकी देशना हुई थी। इसके लिए ये विद्वान् आगम परम्पराको नहीं देखना चाहते । कोन परम्परा भट्टारक युगसम्मत है और कौन परम्परा पुरानी है इसे वे विद्वान् यदि समझ लें तो उन्हे न तो अपने पक्षके समर्थनके लिए आम जनताको मुख बनाना पड़े और न ही अध्यात्मके समर्थनमें प्रकाशित साहित्यका निकृष्ट तरीकेसे बहिष्कार ही करना पड़े और न ही किन्हीसे फतवा दिलानेका षड्यन्त्र ही रचना पड़े। पर वे