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५ उभयनिमित्त-मीमांसा पर उपाधि-निज वस्तुका सहज योग है जीव ।
विधि-निषेधसे जानते त्रिभुवनराय सदीय ।। १ उपोद्घात
अभी तक हमने पिछले दो अध्यायो द्वारा बाह्य कारण और निश्चय उपादानकी क्रमसे मीमांसा की। अब आगे इस अध्यायमें आगमानुसार यइ स्पष्ट किया जायगा कि जड़-चेतनके प्रत्येक कार्यमें इन दोनों उपाधियोका योग सहज ही मिलता रहता है। जिसे अज्ञानीके योग और विकल्परूप प्रयोग निमित्त कहा गया है उसका योग भी अपने कालमें सहज ही होता है । मात्र उस कालमें उसके बुद्धि और प्रयत्नपूर्वक होने से उसकी स्वीकृतिको ध्यानमें रखकर उसे प्रायोगिक कहा गया है। इतना विशेष है कि सम्यग्दर्शन आदि स्वभाव परिणत जीवोंके संसार अवस्थामे जितने भी विभाव कार्य होते हैं वे सब अबुद्धिपूर्वक विस्रसा ही स्वीकार किये गये है। कारण कि उनमे इस जीवके स्वपनेका भाव नही होता । उनका मात्र वह ज्ञाता दृष्टा ही होता है। समयसार आत्मख्याति टीकामे इसी तथ्यको स्वीकार करते हुए लिखा है
यो हि ज्ञानी स बुद्धिपूर्वक राग-द्वेष-मोहरूपास्रवभावाभावात् निरास्रव एव, किन्तु सोऽपि यावत् ज्ञान सर्वोत्कृष्टभावेन दृष्ट ज्ञातुमनुचरित वाशक्त सन् जघन्यभावेनैव ज्ञान पश्यति जानात्यनुचरति तावत्तस्यापि जघन्यभावान्यथानुपपत्त्याऽनुमीयमानाबुद्धिपूर्वककलकविपाकसद्भावात् पुद्गलकर्मबन्ध स्यात् । - जो परमार्थसे ज्ञानी है उसके बुद्धिपूर्वक राग, द्वेष और मोहरूप आस्रव भावोका अभाव होनेसे वह निरास्रव ही है। इतना विशेष है कि वह जब तक ज्ञानको सर्वोत्कृष्टरूपसे देखने, जानने और आचरनेमे अशक्त होता हुआ जघन्य भावसे हो ज्ञानको देखता, जानता और आचरता है तब तक उसके भी जघन्य भावकी अन्यथा उत्पत्ति नहीं हो सकती, इससे अनुमान होता है कि उसके अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंक रूप विपाकका सद्भाव होनेसे पुद्गल कर्मका बन्ध होता है।
ज्ञानीके मिथ्यात्वरूप भाव तो होता ही नही। नौवें गुणस्थान तक द्वेष और दश गुणस्थान तक रागका सद्भाव होनेसे वह उनका स्वामी