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निश्चयउपादान-मीमांसा होना.यह जैसे वस्तुका स्वरूप है उसी प्रकार उसका परिणमन करना। यह भी वस्तुका स्वरूप है । नय केवल अंश ज्ञान होनेसे वह मात्र उनको विवक्षासे उनकी सिद्धि करता है, इसलिये विवक्षा या अपेक्षा नयज्ञानमें होती है वस्तु तो धर्म और धर्मी दोनों दृष्टियोंसे पर निरपेक्ष स्वतःसिद्ध है। इतना अवश्य है कि जब एक-एक अंशकी अपेक्षा वस्तूको जाना जाता है या उसका कथन किया जाता है तो मात्र दूसरे अंशरूप भी वस्तु है इसको भूलकर मात्र उसी अंशरूप वस्तुको न स्वीकार कर लिया जाय इस तथ्यको ध्यानमें रखनेके लिए अपेक्षा या विवक्षा लगाई जाती है। इसलिये अपेक्षा नयज्ञान या नयरूप कथनमें ही होती है, वस्तुमें या उसके स्वरूप सिद्ध धर्मों में नहीं। यह सिद्धान्त कार्य-कारणपर भी पूरी तरहसे लागू होता है । निश्चय उपादान स्वरूप मे स्वयं है और निश्चय स्वरूप कार्य (पर्याय) स्वरूपसे स्वयं है । विवक्षा या अपेक्षा मात्र उनको सिद्धिमें लगती है। जैसे यह कहना कि यह इस कारणका कार्य है, या यह कहना कि यह इस कार्यका कारण है। इसलिये यह कथन सद्भत व्यवहारनयका विषय हो जाता है, क्योंकि निश्चय स्वरूप कारणता भी वस्तुका स्वरूप है और निश्चय स्वरूप कार्यता भी वस्तुका स्वरूप है। मात्र उनका एक-दूसरेकी अपेक्षासे कथन किया गया है, इसीलिये इस कथनको सद्भूत व्यवहारनयका विषय कहा गया है। अब रह गया कर्म और नो कर्मको दृष्टिमें रखकर व्यवहार हेतु और उसकी अपेक्षा व्यवहाररूप कार्यका कथन, सो पहले तो यह देखिये कि ज्ञानावरणादि कर्म और उनसे भिन्न शरीरादि समस्त पदार्थोकी नोकर्म संज्ञा क्यों है ? ज्ञानावरणादिको आत्माका कर्म क्यों कहा जाता है इस तथ्यको स्पष्ट रूपसे समझनेके लिये प्रवचनसार अ २ गा. २५ की तत्त्वदीपिका टीकाके इस कथन पर दृष्टिपात कीजिये_ क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वात् कर्म । तनिमित्तप्राप्तपरिणाम पुद्गलोऽपि कर्म ।
आत्माके द्वारा प्राप्य होनेसे क्रिया नियमसे आत्माका कर्म है और उस क्रियारूप राग, द्वेष, मोह और योग को निमित्तकर ( व्यवहारसे हेतु कर ) जिसने अपना परिणाम प्राप्त किया है ऐसा पुद्गल भी उसका कर्म कहलाता है।
ज्ञानावरणादि कर्म वास्तवमें पुद्गलका परिणाम है, फिर उस परिणामकी ज्ञानावरणादि कर्म संज्ञा क्यों रखी गई ? उक्त कथन द्वारा इसी तथ्यको स्पष्ट किया गया है।