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निश्चयउपादान-मीमांसा
८३ अवस्थामें कोई किसीका समर्थ कारण नहीं ठहरेगा। और असमर्थ कारणसे कार्यकी उत्पत्ति होती नहीं। इस प्रकार यह बिचारी कार्यकारणता कहाँ ठहरेगी।
शंका-कालान्तर स्थायी अग्निरूप अपने कारणसे उत्पन्न हुआ कालान्तर स्थायी धूमरूप स्कन्ध एक ही है, इसलिये वह उसका कारण प्रतीत होता है, क्योंकि ऐसा व्यवहार है, अन्यथा ऐसे व्यवहारका अभाव प्राप्त होता है ?
समाधान-यदि ऐसा है तो सयोगिकेवलीका रत्नत्रय अयोगिकेवलीके अन्तिम समय तक एक ही है, इसलिये वह तदनन्तरभावी एक सिद्ध पर्यायका कारण है ऐसा प्राप्त हुआ और वह हमें अनिष्ट नहीं है, क्योंकि व्यवहारनयके अनुरोधसे वह हमे इष्ट है। किन्तु निश्चयनयका आश्रय करनेपर तो जिसके अनन्तर मोक्षकी उत्पत्ति होती है वही अयोगिकेवलीका अन्तिम समयवर्ती रत्नत्रय मोक्षका मुख्य कारण है यह तत्त्वज्ञोंको निर्दोष प्रतीत होता है ।
इस उद्धरणसे जिन तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है वे ये हैं
(१) निश्चयनयसे उपादान कारण उसीका संज्ञा है जिसके अव्यहित . उत्तर समयमें तदनुरूप निश्चित कार्य होता है। इसकी पुष्टि इस वचनसे भी होती है
उपादानसदृश कार्य भवति । परमात्मप्रकाश पृ० १५१ टीका । उपादानके सदृश कार्य होता है ।
(२) इसी निश्चय उपादानकी समर्थ कारण संज्ञा है, इसकी पुष्टि इस वचनसे भी होतो हैविवक्षितस्वकार्यकरणे अन्त्यक्षणप्राप्तत्वं हि सम्पूर्णम् ।
-तत्त्वार्थ श्लोकवा० पृ०७० विवक्षित अपने कार्यके करनेमें अन्त्यक्षण प्राप्तपनेका नाम ही सम्पूर्ण है।
(३) निश्चय उपादानके पूर्व उसको व्यवहार उपादान कहते हैं। जैसे सयोगिकेवलीके रत्नत्रयको या इससे पूर्वके रत्नत्रयको मोक्षका उपादान कारण कहना यह व्यवहार उपादान है । यह समर्थ उपादान तो नहीं है. फिर भी इसमें मोक्ष प्राप्तिके कारणरूपी केवल दव्य योग्यता विद्यमान
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