________________
जैनसत्त्वमीमांसा (२) अब रही असद्भूत व्यवहार नयसे कार्य कारणकी बात सो इस लोकके षद्रव्यमयी होनेके कारण प्रत्येक द्रव्यकी प्रति समयकी पर्यायोंकी अन्य किस द्रव्यको पर्यायके साथ बाह्य व्याप्ति (व्यवहार व्याप्ति) पूर्वक काल प्रत्यासत्ति बनती है इस तथ्यको ध्यानमें रखकर विवक्षित कार्यका सूचक होनेसे इन दोनोंके मध्य असद्भूत व्यवहारनयसे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध कल्पित किया गया है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य विद्यानन्द क्या कहते हैं यह उन्हींके शब्दोंमें पढ़िए___ कचित्सत एव मामग्रीसन्निपातिन स्वभावातिशयोत्पत्तेः सुवर्णस्यैव केपूरादिसंस्थानवत् । सुवर्ण हि सुवर्णत्वादिव्यादेशात् सदेव केयूरादिसंस्थानपर्यायादेशाच्चासदिति तथापरिणमनशक्तिलक्षणायाः प्रतिविशिष्टान्त सामग्र्याः सुवर्णकारकव्यापारादिलक्षणायाश्च बहिःसामग्याः सन्निपाते केयूरादिसंस्थाना. त्मनोत्पद्यते । ततः सदसदात्मकेमेवार्थकृत् । - अष्टसहस्री पृ० १५० । ___कथंचित् सत्के ही सामग्रीके सन्निपात होनेपर सुवर्णके केयूरादि संस्थानके समान स्वभावातिशयकी उत्पत्ति होती है। जो सुवर्णत्व आदि द्रव्यार्थिक नयसे सत् ही है और केयूरादि संस्थानरूप पर्यायार्थिक नयसे असत् है वह उस प्रकारके परिणमनरूप शक्ति लक्षणवाली प्रतिविशिष्ट अन्तःसामग्रीका और सुवर्णकारके व्यापारादि लक्षण बहिसामग्रीका सन्निपात होनेपर केयूर आदि सस्थानरूपसे उत्पन्न होता है। इसलिये सिद्ध होता है कि सदसदात्मक वस्तु ही अर्थ क्रियाकारी होती है। - इस उल्लेखसे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक कार्यमें प्रतिविशिष्ट अन्तःसामग्री और बहिःसामग्री उसी प्रकारकी होती है जैसा कार्य होता है। प्रत्येक कार्यके प्रति निश्चय उपादानकी अन्तर्व्याप्ति और व्यवहार साधनकी बहिःव्याप्ति स्वीकार करनेका आशय भी यही है । ऐसा ही निश्चय-व्यवहारका योग है। जो महाशय इन्द्रियप्रत्यक्ष, तर्क और अनुभवके आधारपर उसकी अन्यथा प्ररूपणा करते हैं उनके उन इन्द्रिय प्रत्यक्ष आदिको सम्यक् श्रुत्तज्ञान तो नहीं कहा जा सकता।
इतने कथनसे यह सिद्ध हो जाता है कि अव्यहित पूर्व पर्याययुक्त द्रव्यका नाम कारण है और अव्यवहित उत्तर पर्याययुक्त द्रव्यका नाम उसका कार्य है और इसलिये स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामें निश्चय उपादानउपादेयका यह लक्षण दृष्टिगोचर होता है
पुग्वपरिणामजुतं कारणभावेण वट्टदे दन्छ । उत्तरपरिणामजुदं तं चिय कज्ज हणे णियमा ।।२२२॥