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________________ आत्मनिवेदन कर देना चाहता हूँ कि दो दोरकी जो लिखित सामग्री मध्यस्थके पास सुरक्षित है उससे एक बार मिलान करके तो देख लें। वेसे दो दौरकी प्रमाणित सामग्री और तीसरे दौरकी मध्यस्थकी ओरसे प्रमाणित न कराई गई उनकी अपनी सामग्री और हमारी ओरकी प्रमाणित सामग्री उनके पास सुरक्षित होगी ही, उससे मिलान कर लें। इससे अधिक हम और क्या आग्रह कर सकते हैं। वैसे वे यदि उनके निजी विचारोंसे सहमत न होनेवाले दूसरे विद्वानोंको बदनाम करना ही श्रेयोमार्ग समझते हैं तो उसके लिये हमारे पास कोई इलाज नहीं है। न तो कभी हम ऐसे मार्ग पर चले है और न चलेंगे। यह जिनमार्ग नहीं है। हम सोचते थे कि सार्वजनिक रूपमें की गई इस लिखित तत्त्वच के बाद वह पक्ष विरोधी मार्गका परित्याग कर देगा और मिल-जुलकर सम्यक मोक्षमार्गकी प्ररूपणामें सहयोगी बनेगा। किन्तु लगता है कि तत्त्वचर्चा मात्र एक बहाना था। उस पक्षका प्रयोजन ही दूसरा है। मालम पड़ता है कि वह पक्ष नहीं चाहता कि भट्टारक युगसे जो बाह्म क्रियाकाण्डको परमार्थ धर्म या धर्मका परमार्थ साधन मान लिया गया है जो कि वर्तमानमें लोकपूजाका प्रमुख साधन बना हुआ है उस पर किसी प्रकारको आँच आये । और इसीलिये समाजको भ्रममें रखनेका वह पक्ष उपाय करता रहता है। यह हम अच्छी तरहसे जानते है कि लोककी दृष्टि में बाह्य सदाचारकी मुख्यता है और इस दृष्टिसे वह होनी भी चाहिये। इसका कोई निषेध भी नहीं करता। इतना ही नहीं, इस पर यथासम्भव पूरा ध्यान भी दिया जाता है। इतना अवश्य है कि उपदेशके प्रसंगसे यह अवश्य ही बतलाया जाता है कि आत्मधर्मका मूल सम्यग्दर्शन है, उसके होने पर ही बाह्य प्रवृत्ति सम्यक् कहलाती है। इसलिये सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति के लिये आत्मकार्यमें सावधान होना सर्वोपरि है। जिनागम चार अनुयोगोंमें विभक्त है, उनमें प्रतिपादित होनेवाली विषय वस्तु भी अलग-अलग है। चरणानुयोग सम्यग्दृष्टि श्रावक और मुनिका केसा बाह्य आचार होता है इसका प्रतिपादन करता है । जबकि अध्यात्मस्वरूप द्रव्यानुयोग अज्ञानभावसे हट कर ज्ञानमार्गमें आनेका दिग्दर्शन कराता है। यह इन दोनों अनुयोगोंकी विषय वस्तु है । जिन मार्गको समझकर इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर तत्त्वप्ररूपणा होनी चाहिये। अध्यात्मप्ररूपणाके समय शुद्ध आध्यात्मको समझाया जाना चाहिए । यत. बाह्य क्रियावस्तु ज्ञानमार्ग नहीं है, इसलिये ज्ञानमार्गको
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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