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जैन स्वाध्यायमाला
॥ रइवक्का पढमा चूलिया ॥१॥
इह खलु भो ! पव्वइएण उप्पण्णदुक्खेण संजमो अरइसमावण्णचित्तेणं अणोहाणुप्पेहिणा अणोहाइएण चेव हयरस्सिगयकुस-पोयपडागाभूयाई इमाइं अट्ठारसठाणाई सम्मं संपडिलेहियव्वाइं भवंति । तं जहा
ह भो ! १ दुस्समाए दुप्पजीवी २ लहुसगा इत्तरिया गिहीण कामभोगा ३ भुज्जो असाइबहुला मणुस्सा । ४ इमे य मे दुक्खे न चिरकालोवट्ठाई भविस्सई ५ अोमजण-पुरकारे ६ वतस्स य पडिप्रायणं ७ अहरगईवासोवसपया ८ दुल्लहे खल भो ! गिहीण धम्मे गिहिवासमझे वसंताणं । प्रायंके से वहाय होइ १० सकप्पे से वहाय होइ ११ सोवक्केसे गिहिवासे, निरुवक्केसे परियाए १२ बधे गिहिवासे, मुक्खे परियाए १३ सावज्जे गिहिवासे, अणवज्जे परियाए १४ बहुसाहारणा गिहिण कामभोगा १५ पत्तेय पुण्णपाव १६ अणिच्चं खल भो ! मणुयाण जीवियं कुसग्गजलविदुचचंल १७ वहु च खलु भो ! पावं कम्मं पगड १८ पावाण च खलु भो । कडाण कम्माण पुचि दुच्चिन्नाणं दुप्पडिकताण वेइत्ता, मुक्खो, 'नत्यि अवेइत्ता' तवसा वा झोसइत्ता । अद्वारसम पयं भवइ । भवइ य इत्य सिलोगो।
जया य चयइ धम्म, अणज्जो भोगकारणा। से तत्य मुच्छिए वाले, प्रायइं नाववृज्झइ १ जया पोहाविप्रो होइ, इदो वा पडियो छमं । सम्वधम्मपरिभट्ठो, स पच्छा परितप्पइ ।२।