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जैन स्वाध्यायमाला
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आठ कर्म प्रबल करी, भमियो जीव अनादि । आठ कर्म छेदन करी, पावे मुक्ति समाधि ।२०। पय कुपथ कारण करी, रोग हानि वृद्धि थाय । इम पुण्य पाप किरिया करी, सुख दुख जग मे पाय।२१। बाध्या बिन भुगले नही, विन भुगत्या न छुटाय ।
आप ही करता भोगता, आप ही दूर कराय ।२२। • हूं अविवेकी मोहवश, आख मीच अधियार । 'मकडी जाल बिछाय के, फसु आप धिक्कार ।२३। सर्व भक्षी जिम अग्नि हू, तपियो विषय कषाय । स्वच्छन्दी अविनीत मैं, धर्मी ठग दुखदाय ।२४। कहा भयो घर छाड के, तज्यो न माया संग । नाग तजी जिम काचली, विप नही तजियो अग।२५॥ पालस विपय कषाय वश, आरभ परिग्रह काज ।
योनि चौरासी लख भम्यो, अब तारो महाराज ।२६। । आतम निंदा शुद्ध भणी, गुणवत वंदन भाव ।
राग द्वेष उपशम करी; सब से खमत खमाव ।२७। पुत्र कुपुत्र जो मै हुओ, अवगुण भर्यो अनत । अपनो विरुद विचार के, माफ करो भगवत ।२८। शासनपति वर्द्धमानजी, तुम लग मेरी दौड । जैसे समुद्र जहाज बिन, सूझत और न ठौर ।२६। भव भ्रमण संसार दुख, ताका वार न पार । निर्लोभी सत गुरु बिना, कोन उतारे पार ।३०। भवसागर ससार मे, दीपा श्री जिनराज। .