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जैन सुबोध गुटका।
(३१)
हटानी पुराग बधानी, भावना भव नाशिनी ॥ टेर। विवेक वन संचारिणी,उपसम सुख संजीवनी । संसार समुद्र तारिणी है, कर्म अरिने त्राशिनी ॥ १ ॥ दान शील तप तीनों भावना से सफल हो । शिव मिलावनी पाविनी, कषाय शैल विनाशिनी ॥ २॥ वन रहो चाहे घर रहो.भाव विन करणी वृथा । गुण स्थानारोहन मोह ढाहन, परम ज्ञान प्रका. शिनी ॥३॥श्रेष्ठ जीरण स्वर्ग में गए,भवन में भर्त केवली । मरुदेवी भगवती को, शिव धाम निवाशिनी ॥ ४ ॥ गुरु के परसाद से, करे चौथमल ऐमा कथन । ऐसी भावो भावना, सदा हपोनन्द विलाशिनी ॥ ५ ॥
. . ४५ कुस्त्री. (तर्ज-थारो नर भव निष्फल जाय जगत का खेल में )
मिले पाप उदय कुलक्षणीनार इन्सान को ॥ टेर ॥ पति से करे विरोध सदा, और बोले कटु जबान को । हुक्म चलाये पति के कार, माने नौकर दुकान को ॥१॥ मने परणिया जदसुं थाने, अन्न मिल्यो है खान को। सारा घर को काम चलाऊं, यूं वाक्य कहे अभिमान को ॥२॥ कुटल कलेसणी व्यभिचारिणी, करे कुधान शुद्ध धान को । पियर सासरा की तज लजा, लिहाज नहीं खानदान को॥३॥स्वछंद हो उल्टी चले, नहीं माने पति फरमान को । साधु सत्यां की करे बुराई, नहीं काम पुण्य दान